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________________ श्री संवेगरंगशाला ५८५ तीसरा सारणा द्वार :-संथारे को स्वीकार करने पर भी, आराधना में उद्यमशील दृढ़ धीरज और दृढ़ संघयण वाला भी अति दुष्कर समाधि की अभिलाषा रखने वाला स्वभाव से ही संसार प्रति उद्वेग को धारण करने वाला और अत्यन्त उत्तरोत्तर बढ़ते शुभाशय वाला होने पर भी क्षपक महा मुनि को किसी कारण से अनेक जन्मों के कर्म बन्धन दोष से वात आदि धातु के क्षोभ से अथवा बैठना, पासा बदलना आदि परिश्रम से साथल, पेट, मस्तक, हाथ, कान, मुख, दांत, नेत्र, पीठ आदि किसी भी अंग में ध्यान के अन्दर विघ्नकारी वेदना प्रगट हो तो उसी समय गुणरूपी मणि से भरे हुए क्षपक मुनि वाहन के समान भागे अर्थात् दुर्ध्यान करे और इस तरह परिणाम नष्ट हो जाने से वह भयंकर संसार समुद्र में चिरकाल भ्रमण करेगा, उस समय पर उसे भग्न परिणामी जानकर भी निर्यामक केवल नाम ही धारण कर यदि उसकी उपेक्षा करे, तो इससे दूसरा अधर्मी-पापी कौन है ? यदि मूढ़ इस तरह क्षपक की अपेक्षा करे, उस निर्यामक साधु के जो गुण पूर्व में इस ग्रन्थ में वर्णन किया है, उस गुणों से भ्रष्ट हुआ है। अतः औषध के जानकार, साधुओं को स्वयं अथवा वैद्य के अदेशानुसार उस क्षपक को आरोग्यजनक औषध करना चाहिए। वेदना का मूल कारक वात, पित्त या कफ जो भी हो उसे जानकर प्रासुक द्रव्यों से शीघ्र उपयोग पूर्वक वेदना की शान्ति करे। मूत्राशय को सेक आदि से गरमी देकर अथवा विलेपन आदि शीत प्रयोग से तथा मसल कर, शरीर दबाकर आदि से क्षपक को स्वस्थ करे। ऐसा करने पर भी यदि अशुभ कर्म के उदय से उसकी वेदना शान्त न हो अथवा उसे तृषा आदि परीषहों का उदय हो तो वेदना से पराभव होते अथवा परीषह आदि से पीड़ित मुरझाया हुआ क्षपक यदि वह बोले, अथवा बकवास करे तो अति मुरझाते उसे निर्यामक आचार्य आगम के अनुसार इस तरह समझाये कि जैसे संवेग से पुनः सम्यक् चैतन्य वाला बने। उसे पूछना कि तू कौन है ? नाम क्या है ? कहाँ रहता है ? अब कौन-सा समय है ? तू क्या करता है ? कौन-सी अवस्था में चल रहा है ? अथवा मैं कौन हूँ ? ऐसा विचार कर ! इस प्रकार साधार्मिक वात्सल्य अति लाभदायक है, ऐसा मानता निर्यामक आचार्य स्वयं इस प्रकार क्षपक को स्मरण करवाना चेतनमय बनाना। इस तरह कुमति के अन्धकार को नाश करने में सूर्य के प्रकाश समान और सद्गति में जाने का निर्विघ्न सरल मार्ग समान चार मूल द्वार वाली यह संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अन्तर द्वार वाला चौथा समाधि लाभ द्वार में यह तीसरा सारणा द्वार कहा है। अब इस तरह जागत करने पर भी क्षपक जिसके बिना धैर्य को धारण कर नहीं सके उस धर्मोपदेश स्वरूप कवच द्वार को कहते हैं।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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