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________________ श्री संवेगरंगशाला ५८१ से जो किया, उसे भूत, भविष्य और वर्तमान इन तीनों काल सम्बन्धी सर्व पापों की विविध-त्रिविध गरे द्वारा विशुद्ध बना संविज्ञ मन वाला मैं आलोचना, निन्दा और गहरे से विशुद्धि को प्राप्त करता हूँ। इस प्रकार गुणों की खान क्षपक श्रावक यथा स्मरण दुराचरणों के समूह की गर्दा करके उसके राग को तोड़ने के लिए आत्मा को समझावे जैसे कि देवलोक में इस मनुष्य जन्म की अपेक्षा अत्यन्त श्रेष्ठ रमणीयता से अनन्ततम गुणा अधिक रति प्रगट कराने वाला शृंगारिक शब्दादि विषयों को भोगकर पुनः तुच्छ, गन्दा और उससे अनन्त गुणा हल्का इस जन्म के इस विषयों को, हे जीव ! तुझे इच्छनीय नहीं है। तथा नरक में यहाँ की अपेक्षा से स्वभाव से ही असंख्य गुणा कठोर अनन्ततम गुणा केवल दुःखों को ही दीर्घकाल तक निरन्तर सहन करके वर्तमान में, आराधना में लीन मन वाले हे जीव ! तू यहाँ विविध प्रकार की शारीरिक पीड़ा होती, फिर भी अल्प भी क्रोध मत करना । तू निर्मल बुद्धि से विचार कर यदि दुःखों को समता से सहन करते, बिना स्वजनों से तेरा उसे थोड़ा भी आधार नहीं है, क्योंकि-हे भद्र ! तू सदा अकेला ही तीन जगत में भी दूसरा कोई तेरा नहीं है, तू भी इस जगत में अन्य किसी का भी सहायक नहीं है, अखण्ड ज्ञान-दर्शन-चारित्र के परिणाम से युक्त और धर्म को सम्यग् अनुकरण करता एक प्रशस्त आत्मा ही अवश्य तेरा सहायक है । और जीवों को यह सारे दुःखों का समुदाय निश्चय संयोग के कारण हैं। इसलिए जावज्जीव भी सर्व संयोगों को त्याग करते, तू सर्व प्रकार के आहार को तथा उस प्रकार की समस्त उपधि समूह को, और क्षेत्र सम्बन्धी भी सर्व क्षेत्र के राग को शीघ्र त्याग कर। और जीव का इष्ट, कान्त प्रिय, मनपसन्द, मुश्किल से त्याग हो, ऐसा जो यह पापी शरीर है उसे भी तू तृण समान मान । इस प्रकार परिणाम को शुद्ध करते सम्यग् बढ़ते विशेष सवेग वाला शल्यों का सम्यक् त्यागी सम्यक् आराधना की इच्छा वाला और सम्यक् स्थिर मन वाला सुभट जैसे युद्ध की इच्छा करे, वैसे क्षपक मनोरथ से अति दुर्लभ पण्डित मरण को मन में चाहता है और पद्मासन बनाकर अथवा जैसे समाधि रहे, वैसे शरीर से आसन लगाकर, संथारे में बैठकर, डांस, मच्छर आदि को भी नहीं गिनते । धीर अपने मस्तक पर हस्त कमल को जोड़कर भक्ति के समूह से सम्पूर्ण मन वाला बार-बार इस प्रकार बोले : यह 'मैं' तीन जगत से पूज्यनीय, परमार्थ से बन्धु वर्ग और देवाधिदेव श्री अरिहंतों को सम्यक् नमस्कार करता हूँ। तथा यह 'मैं' परम उत्कृष्ट सुख
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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