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________________ श्री संवेगरंगशाला के अंकुर को नाश करने वाला, देव दानव के समूह के चित्त में चमत्कार करने वाला मोक्ष नगर की स्थापना करने में खूटे समान जीवों की पीड़ा के त्याग रूप दुर्गति मार्ग की अवज्ञा कारक, पाप प्रवृत्ति में अनादर करने वाला, और परमपद रूपी ललना के साथ लीला करने वाला निर्मलशील का परिपालन कर । इस तरह पन्द्रवाँ शील परिपालन द्वारा कहा है । अब इन्द्रिय दमन नामक सोलहवाँ अन्तर द्वार कुछ अल्प मात्र कहता हूँ । वह इस प्रकार : ५५५ सोलहवाँ इन्द्रिय दमन द्वार : - जीव अर्थात् 'इन्द्र' और 'आ' लगाने से इन्द्रियाँ शब्द बना है । और जीव ज्ञानादि गुण रूपी लक्ष्मी का क्रीड़ा करने का महल सदृश है और इन्द्रिय निश्चय उस महल के झरोखे आदि अनेक द्वार समान है, परन्तु उस इन्द्रियों में अपने-अपने शब्दादि विषयों की विरति रूप दरवाजों के अभाव में प्रवेश करते अनेक कुविकल्पों की कल्पना रूप पापरज के समूह से चन्द्रकिरण समान उज्जवल भी ज्ञानादि गुण लक्ष्मी अत्यन्त मलीन होता है । अथवा इन्द्रिय रूपी द्वार बन्द नहीं होने से जीव रूपी प्रसाद में प्रवेश करके दुष्ट विषय रूपी प्रचन्ड लूटेरे ज्ञानादि लक्ष्मी को लूट रहे हैं । इस प्रकार सम्यक् समझकर, हे धीर ! उस ज्ञानादि के संरक्षण के लिए प्रयत्न करने वाले तुम सर्व इन्द्रिय रूपी द्वार को अच्छी तरह बन्द कर रख । स्वशास्त्र-परशास्त्र के ज्ञान के अभ्यास से महान पण्डित पुरुष भी उसके वेग को नहीं रोकने बलवान इन्द्रिय के समूह से पराभव होते हैं । व्रतों को धारण करो अथवा तपस्या करो, गुरू का शरण स्वीकार करो, अथवा सूत्र अर्थ का स्मरण करो, किन्तु इन्द्रिय दमन से रहित जीव को वह सब छिलके कूटने के समान निष्फल हैं । मद से प्रचन्ड गन्ड स्थल वाले हाथियों की घटा को नाश करने में एक समर्थ जीव यदि इन्द्रिय का विजेता नहीं है तो वह प्रथम नम्बर का कायर ही है । वहाँ तक ही बड़प्पन है, वहाँ तक ही कीर्ति तीन भवन के भूषण रूप है और पुरुष की प्रतिष्ठा भी वहाँ तक है कि जब तक इन्द्रिय उसके वश में है और यदि वही पुरुष उन इन्द्रियों के वश में है तो कुल में, यश में, धर्म में, संघ में, माता पितादि गुरुजनों में तथा मित्र वर्ग में वह अवश्य काजल फैरता है अर्थात् कलंकित करता है । दीनता, अनादर और सर्व लोगों का शंका पात्र वह बनता है । अरे ! वह क्याक्या अनिष्ट है कि इन्द्रियों के वश पड़े उसे प्राप्त न हो ? अर्थात् विषयासक्त सर्व अनिष्टों को प्राप्त करता है । मस्तक से पर्वत को भी तोड़ सकते हैं, ज्वालाओं से विकराल अग्नि को भी पी सकते हैं और तलवार की धार पर ।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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