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श्री संवेगरंगशाला
। और कृष्ण के पूछने से श्री नेमिनाथ प्रभु ने बारह वर्ष के बाद द्वारिका का विनाश होगा ऐसा कहने से सम्यग् संवेग को प्राप्त कर श्री नेमि प्रभु पास दीक्षा लेकर दुष्कर तपस्या में रक्त बने शाम्ब आदि कुमारों ने तप से भी कर्मों की निर्जरा की है । तथा दूसरा नया पानी का प्रवेश बन्द होने से जलाशय में रहा पुराने पानी जैसे ठन्डी गरमी और वायु के द्वारा सूख जाता है वैसे आश्रव बन्द करने वाला जीव में रहे पूर्व में बन्धन किए पाप भी तप, ज्ञान, ध्यान, अध्ययन आदि अति विशुद्ध क्रिया से निर्जरा को करता है । इस तरह हे सुन्दर मुनि ! तू निर्जरा भावना रूपी श्रेष्ठ नाव द्वारा दुस्तर कर्म रूपी जल में से अपने को शीघ्र पार उतार । फिर सर्व संग का सम्यग् त्यागी और निर्जरा का सेवन करने वाला होकर ऊपर कही नौ भावनाओं से युक्त विरागी बन, तू उर्ध्व, तिर्छा और अधोलोक की स्थिति को तथा उसमें रहे सचित अचित मिश्र सर्व पदार्थों के स्वरूप को भी उपयोग पूर्वक इस तरह विचार कर ।
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१०. लोक स्वरूप भावना :- इसमें ऊर्ध्व लोक में देव विमान, तिर्च्छालोक में असंख्याता, द्वीप समुद्र और अधोलोक में, नीचे सात पृथ्वी, इस प्रकार से संक्षेप में लोक स्वभाव स्वरूप है । लोक स्थिति को यथार्थ स्वरूप नहीं जानने वाले जीव स्वकार्य का साधक नहीं होते हैं और उसका सम्यग् ज्ञाता शिव तापस के समान स्वकार्य साधक बनता है उसकी कथा इस प्रकार :
शिवराजर्षि की कथा
हस्तिनापुर नगर में शिव नामक राजा था । उसने राज्य लक्ष्मी को छोड़कर तापसी दीक्षा लेकर वनवास की चर्या को स्वीकार की । वह निमेष रहित नेत्रों को सूर्य सन्मुख रखकर अतीव तप करते थे, तथा अपने शास्त्रानुसार से शेष क्रिया कलाप को भी करते थे । इस प्रकार तपस्या करते उसे भद्रक प्रवृति से तथा कर्म के क्षयोपशम से विभंग ज्ञान उत्पन्न हुआ था । फिर उस ज्ञान से लोक को केवल सात द्वीप सागर प्रमाण जानकर, अपने विशिष्ट ज्ञान के विस्तार से वह शिवराजर्षि प्रसन्न हुआ। फिर हस्तिनापुर में तीन मार्ग वाले चौक में अथवा चौराहे में आकर वह लोगों को कहता था कि इस लोक में उत्कृष्ट सात द्वीप समुद्र हैं, उससे भी आगे लोक का अभाव है । जैसे किसी के हाथ में रहे कुवलय के फल को जानते हैं वैसे मैं निर्मल ज्ञान से जानता हूँ ।