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________________ ५४० श्री संवेगरंगशाला है, ऐसे अशुचिमय भी इस शरीर की पवित्रता को कहते जो घूमता है वह शुचिवादी ब्राह्मण के समान अनर्थ की परम्परा को प्राप्त करता है । वह इस प्रकार है : शौचवादी ब्राह्मण का प्रबन्ध एक बड़े नगर में वेद पुराण आदि शास्त्र में कुशल बुद्धि वाला, एक ब्राह्मण शौचवाद से नगर के सर्व लोग को हँसाता था । दर्भ वनस्पति और अक्षत से मिश्र पानी से भरे हुए ताँबे के पात्र को हाथ में लेकर 'यह सर्व अपवित्र है' ऐसा मानकर नगर के मार्गों में उस जल को छिड़कता था। उसने एक दिन विचार किया कि मुझे वसति वाले प्रदेश में रहना योग्य नहीं है, निश्चय ही अपवित्र मनुष्यों के संग से दूषित होता हैं, यहाँ पर पवित्रता कहाँ है ? इसलिए समुद्र में मनुष्यों के बिना किसी द्वीप में जाकर गन्ने आदि से प्राण पोषण करते वहाँ रहूँ। ऐसा संकल्प करके अन्य बन्दरगाह पर जाते जहाज द्वारा समुद्र का उल्लंघन कर ईख वाले द्वीप में गया और भूख लगते प्रतिदिन श्रेष्ठ गन्नों का यथेच्छ भोजन करता था। हमेशा इसका भक्षण करने से थक गया और दूसरे भोजन की खोज करते, उस समुद्र में जहाज डूबने से एक व्यापारी वहाँ आया था, वह केवल ईख का रस पीता था, अतः उसे गुड़ के पिंड की सी टट्टी होती थी। उसे जमीन के ऊपर पड़ी देखकर यह ईख के फल हैं, ऐसा मानकर उसे खाने लगा। कुछ समय जाने के बाद उस व्यापारी के साथ उसका दर्शन मिलन हुआ और साथ में ही रहने से परस्पर प्रेम हो गया । एक समय भोजन के समय ब्राह्मण ने पूछा कि-तुम क्या खाते हो? व्यापारी ने कहा कि-ईख । ब्राह्मण ने कहा कि-यहाँ ईख के फलों को तू क्यों नहीं खाता ? व्यापारी ने कहा कि-ईख के फल नहीं होते हैं । ब्राह्मण ने कहा कि मेरे साथ चल, जिससे वह तुझे दिखाऊँ। तब नीचे पड़ी सूखी हुई ईख की विष्टा को उस व्यापारी को दिखाई। इससे व्यापारी ने कहा किहा! हा! महायश ! तू विमूढ़ हुआ है, यह तो मेरी विष्टा है। यह सुनकर परम संशय वाले ब्राह्मण ने कहा कि-हे भद्र ! ऐसा कैसे हो सकता है ? इससे व्यापारी ने उसके बिना दूसरों की भी विष्टा की कठोरता समान रूप आदि कारणों द्वारा प्रतीति करवाई। फिर परम शोक को करते ब्राह्मण अपने देश की ओर जाने वाले जहाज में बैठकर पुनः अपने स्थान पर पहुँचा । इस प्रकार वस्तु स्वरूप से अज्ञानी जीव शोचरूपी ग्रह से अत्यन्त ग्रसित बना हुआ इस जन्म में भी इस प्रकार के अनर्थों का भोगी बनता है और परलोक में भी
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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