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________________ श्री संवेगरंगशाला ५३७ भ्रमण करते बैलों ने अटवी में प्रवेश किया, इधर क्षणमात्र में गवाला आया, तब वहाँ बैल नहीं मिलने से भगवान से पूछा-मेरे बैल कहाँ गये हैं ? उत्तर नहीं मिलने से दुःखी होता वह सर्व दिशाओं में खोजने लगा। वे बैल भी चिरकाल तक चरकर प्रभु के पास आए और गवाला भी रात भर भटक कर वहाँ आया, तब जुगाली करते अपने बैलों को प्रभु के पास देखा, इससे 'निश्चय ही देवार्य ने हरण करने के लिए इन बैलों को छुपाकर रखा था अन्यथा मेरे बहुत पूछने पर भी क्यों नहीं बतलाया ? इस प्रकार कुविकल्पों से तीव्र क्रोध प्रगट हुआ और वह गवाला अति तिरस्कार करते प्रभु को मारने दौड़ा। उसी समय सौ धर्मेन्द्र अवधि ज्ञान से प्रभु की ऐसी अवस्था देखकर तर्क वितर्क युक्त मन वाला शीघ्र स्वर्ग से नीचे आया और गवाले का तीव्र तिरस्कार करके प्रभु की तीन प्रदक्षिणापूर्वक नमस्कार करके ललाट पर अंजलि करके भक्तिपूर्वक कहने लगा आज से बारह वर्ष तक आपको बहुत उपसर्ग होंगे, अतः मुझे आज्ञा दीजिए कि जिससे शेष कार्यों को छोड़कर आपके पास रहूँ। मैं मनुष्य तिर्यंच और देवों के द्वारा उपसर्गों का निवारण करूँगा। जगत् प्रभु ने कहा कि-हे देवेन्द्र ! तू जो कहता है, परन्तु ऐसा कदापि नहीं होगा, न हुआ है और न ही होगा। संसार में भ्रमण करते जीवों को जो स्वयं ने पूर्व में स्वेष्छाचारपूर्वक दुष्ट कर्म बन्धन किया हो, उसकी निर्जरा स्वयं उसको भोगता है, अथवा दुष्कर तपस्या के बिना किसी की सहायता नहीं होती है । कर्म के आधीन पड़ा जीव अकेला ही सुख दुःख का अनुभव करता है, अन्य तो उसके कर्म के अनुसार ही उपकार या अपकार करने वाला निमित्त मात्र होता है। प्रभु के ऐसा कहने से इन्द्र नम गया । और त्रिभुवन नाथ प्रभु भी अकेले स्वेच्छापूर्वक दुस्सह परीषहों को सहने लगे। इस प्रकार यदि चरम जैन श्री वीर परमात्मा ने भी अकेले ही दुःख सुख को सहन किया तो हे क्षपक मुनि ! तू एकत्व भावना चिन्तन करने वाला क्यों नहीं हो ? इस प्रकार निश्चय स्वजनादि विविध बाह्य वस्तुओं का संयोग होने पर भी तत्व से जीवों का एकत्व है। इस कारण से उनका परस्पर अन्यत्व–अलग-अलग रूप हैं। जैसे कि ५. अन्यत्व भावना :-स्वयं किये कर्मों का फल भिन्न-भिन्न भोगते जीवों का इस संसार में कौन किसका स्वजन है ? अथवा कौन किसका परजन भी है ? जीव स्वयं शरीर से भिन्न है, ये सारे वैभव से भी भिन्न है और प्रिया अथवा प्रिय पिता, पुत्र, मित्र और स्वजनादि वर्ग से भी अलग है, वैसे ही जीव से ये सचित्त, अचित्त वस्तुओं के विस्तार से भी अलग है। इसलिए
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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