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________________ श्री संवेगरंगशाला ५२७ क्रिया कलाप को अनुमोदन करता है वैसे भाव आरोग्यता के लिए तू समस्त श्री जिनेश्वरों का जो अनेक जन्मों तक शुभ क्रियाओं का आसेवन द्वारा भाव से चिन्तन रूप थे उसका सम्यक् अनुमोदन कर ! उसमें श्री तीर्थकर परमात्मा के जन्म से पूर्व तीसरे जन्म में तीर्थंकर पद का कारण भूत उन्होंने वीरा स्थानक की थी, इससे देव जन्म से ही साथ में आया मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधि ज्ञान रूप निर्मल तीनों ज्ञान सहित उनका गर्भ में आगमन होता है, निज कल्याणक दिन में सहसा निरंतर समूहबद्ध आते सारे चार निकाय देवों से आकाश द्वार पूर्ण भर जाता है, इससे तीनों लोक की एकता बताने वाले, जगत के सर्व जीवों के प्रति वात्सल्यता से तीर्थ प्रवर्तना करने में वे तत्परता रहते, सर्व गुणों का उत्कृष्टता वाले, सर्वोत्तम पुण्य के समूह वाले, सर्व अतिशयों के निधान रूप, राग, द्वेष मोह से रहित, लोकालोक के प्रकाशक, केवल ज्ञान रूपी लक्ष्मी से युक्त, देवों द्वारा श्रेष्ठ आठ प्रकार के प्रभाव वाले प्रतिहार्यों से सुशोभित देवों द्वारा रचित सुवर्ण कमल के ऊपर पैर स्थापन कर विहार करने वाले, अग्लानता से बदले की इच्छा बिना, भव्य जीवों को धर्मोपदेश देने वाले, उपकार नहीं करने वाले अन्य जीवों, के प्रति अनुग्रह प्राप्त कराने के व्यसनी, उनकी एक साथ में उदय आती समस्त पुण्य प्रकृति वाले, तीनों लोक के समूह से चरण कमल की सेवा पाने वाले, निर्विघ्न को नाश करते स्फूरामान ज्ञान दर्शन गुणों को धारण करने वाले, यथाख्यात चारित्र रूप लक्ष्मी की समृद्धि को भोगने वाले, अबाधित प्रताप वाले, अनुत्तर विहार से विचरने वाले, जन्म, जरा, मरण रहित शाश्वत सुख का स्थान मोक्ष को प्राप्त करने वाले सर्वज्ञ, सर्वदर्शी श्री जिनेश्वर भगवन्तों के गुणों का तू त्रिविध-त्रिविध सम्यक् अनुमोदन कर। __ इस तरह श्री सिद्ध परमात्मा के गुणों का अनुमोदन कर जैसे कि-मूल में से पुनः संसार वासी को नष्ट हुए, ज्ञानादि वरणीय आदि समस्त कर्म लेप को दूर करने वाले राहु ग्रह की कान्ति के समूह दूर होने से, सूर्य चन्द्र प्रकाशित होते वैसे ही कर्ममल दूर होने से प्रकाशित आत्मा के यथास्थित शोभायमान शाश्वतमय, वृद्धत्वाभावमय, अजन्ममय, अरूपीमय, निरोगीमय स्वामीरहित सम्पूर्ण स्वतन्त्र सिद्धपुरी में शाश्वत रहने वाले, स्वाधीन ऐकान्तिक, आत्यतिक और अनन्त सुख समृद्धिमय, अज्ञान अन्धकार का नाश करने वाले, अनन्त केवल ज्ञानदर्शन स्वरूपमय, समकाल में सारे लोक अलोक में रहने वाले, सद्भूत पदार्थों को देखने वाले और इससे ही आत्यन्तिक अनन्त वीर्य से युक्त शब्दादि से अगम्य युक्त, अच्छेद्य युक्त, अमेद्य युक्त, हमेशाकृत कृत्यता वाले, इन्द्रिय
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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