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श्री संवेग रंगशाला
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आजीविका करता है । वह इस जन्म में साधु वेश होने के कारण इच्छानुसार आहार आदि प्राप्त करता है, परन्तु पण्डितजनों के विशेष पूज्य नहीं बनता है, परलोक में दुःखी ही होता है । अथवा जैसे धान के दाने रक्षण करने वाली यथार्थ नाम वाली रक्षिता नाम की पुत्र वधू स्वजनों को मान्य बनी और भोग सुख को प्राप्त किया । उसी तरह जीव पाँच महाव्रतों को सम्यक् स्वीकार करके अल्प भी प्रमाद नहीं करता और निरतिचार पालन करता है, वह आत्महित में एक प्रेम वाला इस जन्म में पण्डितों से भी पूज्य बनकर एकान्त से सुखी होते हैं और परलोक मोक्ष को प्राप्त करता है । और जैसे धान के दाने की खेती कराने वाली यथार्थ नाम वाली रोहिणी नाम की पुत्रवधू ने धान के दानों की वृद्धि करने के सर्व का स्वामीत्व प्राप्त किया, उसी तरह जो भव्यात्मा व्रतों को स्वीकार करके स्वयं सम्यक् पालन करे और दूसरे अनेक भव्य जीवों को सुखार्थ अथवा शुभहेतु संयम दे, संयम आराधकों की वृद्धि करे वह संघ में मुख्य, इस जन्म में ( युग प्रधान) समान प्रशंसा का पात्र बनता है और श्री गणधर प्रभु के समान स्व-पर का करते, कुतीर्थंक आदि को भी आकर्षण करने से शासन की प्रभावना करते और विद्वान पुरुषों से चरणों की पूजा करवाता क्रमशः सिद्धि पद भी प्राप्त करता है । इस तरह मैंने अनुशास्ति द्वार में पाँच महाव्रतों की रक्षा नाम का दसवाँ अन्तर द्वार विस्तार अर्थ सहित कहा है, अब क्रमशः परम पवित्रता प्रगट करने में उत्तम निमित्तभूत 'चार शरण का स्वीकार' नामक ग्यारहवाँ अन्तर द्वार कहता हूँ ।
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ग्यारहवें अन्तरद्वार में श्री अरिहंतों का स्वरूप और शरण :- अहो ! क्षपक मुनि ! व्रतों का रक्षण कार्य करने वाला भी, तू भी अरिहंत, सिद्ध, साधु और जैन धर्म, इन चारों का शरण गति स्वीकार कर । इसमें हे सुन्दर जिसके ज्ञानावरणीय कर्मों का सम्पूर्ण नाश हुआ है जो किसी तरह नहीं रुके ऐसे ज्ञान, दर्शन के विस्तार को प्राप्त किया है । भयंकर संसार अटवी के परिभ्रमण के कारणों का नाश करने से श्री अरिहंतपद को प्राप्त किया है । जन्म-मरण रहित सर्वोत्तम यथा ख्यात चारित्र वाले हैं, सर्वोत्तम १००८ लक्षणों से युक्त शरीर वाले हैं, सर्वोत्तम गुणों से शोभित हैं, सर्वोत्तम जैन नामकर्म आदि पुण्य के समूह वाले हैं, जगत के सर्व जीवों के हितस्वी हैं और जगत के सर्व जीवों के परमबन्धु - माता पिता तुल्य श्री अरिहंत भगवन्तों का तू शरण रूप स्वीकार कर । तथा जिसके सर्व अंग सर्व प्रकार से निष्कलंक हैं, समस्त तीन लोकरूपी आकाश को शोभायमान करने में चन्द्र समान है, पापरूपी कीचड़ को उन्होंने सर्वथा नाश किया है, दुःख से पीड़ित जगत के जीवों को पिता की गोद