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श्री संवेगरंगशाला
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रहे हैं ? मुझे कैसा देख रहे हैं ? और मैं कैसा वर्तन करता हूँ ? इस तरह जो नित्य आत्म अनुप्रेक्षा करता है वह दृढ़ ब्रह्मव्रत वाला है । धन्य पुरुष ही मन्दहास्य पूर्वक के वचन रूपी तरंगों से व्याप्त और विषय रूपी अगाढ़ जल वाला यौवन रूप समुद्र को स्त्री रूपी घड़ियाल से फँसे बिना पार उतरते हैं ।
पाँचवां अपरिग्रह व्रत : - बाह्य और अभ्यन्तर सर्व परिग्रह को तू मन, वचन, काया से करना, करवाना और अनुमोदना के द्वारा त्याग कर । इसमें १. मिथ्यात्व, २. पुरुष वेद, ३. स्त्री वेद, ४. नपुंसक वेद ५ से ११ हास्यादिषट्क और ११ से १४ चार कषाय इस तरह चौदह प्रकार का अभ्यन्तर परिग्रह जानना । क्षेत्र, वास्तु, धन, धान्य, धातु सोना, चांदी, दास, दासी, पशु, पक्षी तथा शयन आसनादि नौ प्रकार का बाह्य परिग्रह जानना । छिलके सहित चावल-धान को जैसे शुद्ध नहीं हो सकता है, वैसे परिग्रह से युक्त जीव के कर्म मल शुद्ध नहीं हो सकता है । जब राग, द्वेष, गारव तथा संज्ञा का उदय होता है, तब लालची जीव परिग्रह को प्राप्त करने की बुद्धि रखता है फिर उसके कारण जीवों को मारता है, असत्य बोलता है, चोरी करता है मैथुन का सेवन करता है और अपरिमित धन को एकत्रित करता है । धन के मोह से अत्यन्त मूढ़ बने जीव को संज्ञा, गारव, चुगली, कलह कठोरता तथा झगड़ा विवाद आदि कौन-कौन से दोष नहीं होते हैं ? परिग्रह से मनुष्यों को भय उत्पन्न होता है क्योंकि एलगच्छ नगर में जन्मे हुए दो सगे भाइयों ने धन के लिए परस्पर मारने की बुद्धि हुई थी । धन के लिए चोरों में भी परस्पर अतिभय उत्पन्न हुआ था, इससे मद्य और मांस में विष मिलाकर उनको परस्पर मार दिया था । परिग्रह महाभय है, क्योंकि उत्तम कुंचिक श्रावक ने धन चोरी करने वाले पुत्र होने पर भी आचार्य महाराज को कष्ट दिया वह इस प्रकार 'मुनिपति राजर्षि कुंचिक सेठ के घर उसके भण्डार के पास चौमासा रहा, सेठ की जानकारी बिना ही उनके पुत्र गुप्त रूप में धन चोरी कर गया, परन्तु सेठ को आचार्य जी के प्रति शंका हुई और उनको कष्ट दिया, धन के लिए ठण्डी, गरमी, प्यास, भूख बरसाद, दुष्ट शय्या, और अनिष्ट भोजन इत्यादि कष्टों को जीव सहन करता है और अनेक भार को उठाता है । अच्छे 'कुल में जन्म लेने वाला भी धन का अर्थी गाता है, नृत्य करता है, दौड़ता है, कम्पायमान होता है, विलाप करता है, अशुचि को भी कुचलता है, और नीच कर्म को भी करता है । ऐसा करने पर भी उनको धन प्राप्ति में संदेह होता है, क्योंकि मन्द भाग्य वाले को चिरकाल तक भी धन प्राप्त नहीं कर सकता है । और यदि किसी तरह धन मिल जाए फिर भी उसे अनेक धन से
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तृप्ति नहीं होती है,