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________________ ४६४ श्री संवेगरंगशाला दिवार, परदे के पास खड़े होकर स्त्री विकारी शब्दादि सुनना आदि का त्याग, पूर्व क्रीड़ा को स्मरण का त्याग, प्रणीत भोजन त्याग, अति मात्रा आहार का त्याग और विभूषा का त्याग, ये नौ ब्रह्मचर्य की गुप्ति (रक्षण की बाड) हैं, विषय भोग जन्य दोष, स्त्री के माया-मृषादि दोष, भोग का अशुचित्व, वृद्ध की सेवा और संसर्ग जन्य दोष भी स्त्रियों के प्रति वैराग्य प्रगट होता है। जैसे कि मनुष्य को इस जन्म और पर-जन्म में जितने दुःख के कारणभूत दोष हैं, उन सब दोषों को मैथुन संज्ञा धारण करता है, अर्थात् उसमें में मैथुन संज्ञा उत्पन्न होती है । काम से पीड़ित मनुष्य शोक करता है, कंपता है, चिन्ता करता है और असम्बद्ध बोलता है । शून्य चित्त वाला वह दिन, रात सोता नहीं है और हमेशा अशुभ ध्यान करता है। कामरूपी पिशाच से घिरा हुआ स्वजनों में अथवा अन्य लोग में शयन, आसन, घर, गाँव, अरण्य तथा भोजन आदि में रति नहीं होती है। कामातुर मनुष्य को क्षण भर भी एक वर्ष जैसा लगता है, अंग शिथिल हो जाते हैं और इष्ट की प्राप्ति के लिए मन में उत्कन्ठा को धारण करता है। काम से उन्मादी बना हुआ, दीन मुख वाला वह कनपटी पर हाथ रखकर हृदय में बार-बार कुछ भी चिन्तन करते रहता है और उस चिन्तन से हृदय में जलता है और भाग्ययोग के विपरीत से जब इच्छित मनुष्य प्राप्ति नहीं होती है, तब निरर्थक वह अपने आपको पर्वत पानी या अग्नि द्वारा आपघात करता है । अरति और रति रूप दो चपल जीभ वाला, संकल्प रूप विकराल फणा वाला, विषय रूपी बील में रहने वाला, मद रूपी सुख वाला या मुंहवाला, काम विकार रूपी रोष वाला, विलास रूपी कंचुक और दर्परूपी दाढ़ी वाला, कामरूपी सर्प का डंक मानना और उसे दुस्सह दुःख रूपी उत्कट जहर से विवश होकर नाश होता है। अति भयंकर आशी विष सर्प के डंक लगाये से मनुष्य को सात ही वर्गों में विकार होता है, परन्तु कामरूपी सर्प का डंक लगने पर अति दुष्ट परिणाम वाला दस वर्गों की काम की अवस्थाएँ होती हैं। प्रथम वर्ग में चिन्ता करता है, दूसरे वर्ग में देखने की इच्छा होती है, तीसरे वर्ग में निःश्वास लेता है, चौथे वर्ग में बुखार चढ़ता है, पाँचवें वर्ग में शरीर के अन्दर दाह उत्पन्न होता है, छठे वर्ग में भोजन की अरूचि होना, सातवें वर्ग में मूच्छित होना, आठवें वर्ग में उन्मादी होना, नौवें वर्ग में 'कुछ भी नहीं इस तरह बेहोशी हो जाती है, और दसवें वर्ग में अवश्य प्राण मुक्त होता है, उसमें भी तीव्र मन्दादि संकल्प के आश्रित उस वर्गों के तीव्र मन्द होता है। सूर्य का ताप दिन को जलाता है, जब काम का ताप रात दिन जलाता है। सूर्य के अग्नि की ताप तो आच्छादन छत्र आदि होते हैं किन्तु काम के
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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