SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 515
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला ४६२ नित्य अथवा अनित्य मानना । चौथा असत्य अनेक प्रकार के सावद्य बोलना, जिससे हिंसादि दोषों का सेवन होता है तथा अप्रिय वचन या कर्कश, चुगली, निन्दा आदि के वचन वह यहाँ सावद्य वचन कहलाता है । अथवा हास्य से, क्रोध से, लोभ से अथवा भय से इस तरह चार प्रकार का असत्य वचन को तुझे बोलना नहीं चाहिए । जीवों का हितकर, प्रशस्त सत्य वचन बोलना चाहिए। जो मित, मधुर, अकर्कश, अनिष्ठुर, छल रहित, निर्दोष, कार्यकर, सावद्य रहित और धर्मी - अधर्मी दोनों को सुखकर बोलना चाहिए तथा वैसा ही बोलना चाहिए । ऋषि सत्य बोलते हैं, जो ऋषियों के द्वारा सर्व विद्याओं को सिद्ध करते हैं, वह म्लेच्छ सत्यवादी को भी अवश्य सिद्ध कर सकता है । सत्यवादी पुरुष लोगों को माता के समान विश्वसनीय गुरू के समान पूज्य और स्वजन के समान सर्व के प्रिय होता है । सत्य में तप, सत्य में संयम और उसमें ही सर्व गुण रहे हैं । जगत में संयमी पुरुष भी मृषावाद से तृण के समान तुच्छ बनता है । सत्यवादी पुरुष को अग्नि जलाती नहीं है, पानी में भी डुबाता नहीं है और सत्य के बल वाले सत्पुरुष को तीक्ष्ण पर्वत की नदी भी खींचकर नहीं ले जाती । सत्य से पुरुष को देवता भी नमस्कार करते हैं और सदा वश में रहते हैं, सत्य से ग्रह की दशा अथवा पागलपन भी खत्म हो जाता है और देवों द्वारा रक्षण होता है । लोगों के बीच निर्दोष सत्य बोलकर मनुष्य परम प्रीति को प्राप्त करता है और जगत् प्रसिद्ध यश को प्राप्त करता है । एक असत्य से भी पुरुष माता को भी द्वेष पात्र बनता है, तो फिर दूसरों को वह सर्प के समान अति द्वेष पात्र कैसे नहीं बनता ? वह अवश्य दूसरों का द्वेष पात्र बनता है । असत्यवादी को अविश्वास, अपकीर्ति, धिक्कार, कलह, वैर, भय, शोक, धन का नाश और वध बन्धन समीपवर्ती ही होता है । मृषावादी को दूसरे जन्म में प्रयत्नपूर्वक मृषावाद का त्याग करने पर भी इस जन्म के इन दोषों के कारण चोरी आदि अनेक दोष उत्पन्न होते हैं । मृषा वचन से इस लोक और परलोक के जो दोष होते हैं वही दोष कर्कश वचन आदि वचन बोलने के कारण भी लगता है, असत्य बोलने वाले को पूर्व कहे अनेक दोषों को प्राप्त करता है और उसका त्याग करने से उस दोष से विपरीत गुणों को प्राप्त करता है । 1 ३. अदत्तादान त्याग व्रत :- हे धीर पुरुष ! दूसरे के दिये बिना अल्प अथवा बहुत परधन लेने की या दाँत साफ करने का दन्त शोधन सली मात्र भी लेने की इच्छा नहीं करनी चाहिए। जैसे चारों तरफ से घिरा हुआ भी बन्दर पक्के फलों को खाने के लिये दौड़ता है, वैसे जीव विविध परधन को देखकर की अभिलाषा करता है । उसे ले नहीं सकता है, लेने पर भी उसे भोग
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy