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________________ ४८८ श्री संवेगरंगशाला "इओ गया तीओ गया, मग्गिज्जती न दीसइं। अहमेयं वियाणांसि, बिले पड़िया अडोल्लिया॥" अर्थात्-इधर गई, उधर गई, खोज करने पर भी नहीं मिली, मैं इसे जानता हूँ कि-गिल्ली खड्डे में गिरी है। इस श्लोक को भी सुनकर मुनि ने कुतूहल से अच्छी तरह याद कर लिया, फिर वह मुनि उज्जैनी में पहुँचे और वहाँ कुम्हार के घर रहे । वहाँ पर भी वह कुम्हार इधर-उधर भागते भयभीत चूहे को इस तरह श्लोक को बोला : "सुकुमालया, भद्दलया, रत्ति हिडणसीलया। दीहपिदस्स बीहेहि, नत्थि ते ममओ भयं ॥" अर्थात्-सुकुमार, भद्रक रात्री को घूमने के स्वभाव वाले, हे चूहे ! तू सर्प से चाहे डर । परन्तु मेरे से तुझे भय नहीं है । इस श्लोक को भी राजर्षि जव मुनि ने याद कर लिया और इन तीनों श्लोक का विचार करते वह धर्मकृत्य में तत्पर रहने लगा । केवल कुछ पूर्व वैर को धारण करने वाला दीर्घपुष्ट मन्त्री ने उस स्थान पर गुप्त रूप में विविध प्रकार के शस्त्रों को छुपाकर राजा को कहा कि साधु जीवन से थका हआ आपका पिता राज्य लेने के लिये यहाँ आए हैं, यदि मेरे ऊपर विश्वास न हो तो उसके स्थान को देखो। उसके बाद विविध प्रकार के शस्त्र छुपाये हुये उन्हें दिखाये और राजा ने उन शस्त्रों को उसी तरह देखा। उसके बाद राज्य के अपहरण से डरा हुआ राजा लोकापवाद से बचने के लिए रात्री के समय दीर्घपृष्ट मन्त्री के साथ काली कान्ति की श्रेणि से विकराल तलवार को लेकर कोई नहीं जाने इस तरह साधु को मारने के लिए कुम्हार के घर गया। उस समय मुनि ने किसी कारण वह प्रथम श्लोक कहा। इससे राजा ने विचार किया कि-निश्चय ही अतिशय युक्त इस मुनि ने मुझे जान लिया है। फिर मुनि ने दूसरा श्लोक कहा, तब पुनः उसे सुनकर राजा को आश्चर्य हुआ कि-अहो ! बहन का वृत्तान्त भी इसने किस तरह जाना ? तब मुनि ने तीसरा श्लोक का उच्चारण किया, इस श्लोक को सुनने से मन्त्री के प्रति रोष बढ़ गया और राजा विचार करने लगा किराज्य के त्यागी मेरे पिता पुनः राज्य लेने की कैसे इच्छा करेंगे। केवल यह पापी मन्त्री मेरा नाश करने के लिये इस तरह प्रयत्न करता है। इससे इस दुष्ट को ही मार दूं। ऐसा विचार कर उसके मस्तक को छेदन कर राजा ने साधु को अपना सारा वृत्तान्त निवेदन किया।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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