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श्री संवेगरंगशाला वाला मनुष्य भी समझ नहीं सकता है। ऐसे अति सामर्थ्यपूर्वक देवभव का स्मरण करके भी हे जीवात्मा ! तेरी बुद्धि मनुष्य के तुच्छ कार्यों में क्यों राग करती है ? अथवा हे निर्लज्ज ! वमन पीत्त आदि अशुचिवाले और दुर्गन्धमय मल से सड़ने वाला भोगों में तुझे प्रेम क्यों उत्पन्न होता है ? अथवा क्षण भंगुर राज्य और विषयों की चिन्ता छोड़कर तू एक परम हेतुभूत मोक्ष की इच्छा क्यों नहीं करता ? कि वह उत्तम दिन कब आयेगा कि जिस दिन सर्व राग को त्याग कर उत्तम मुनियों के चरण की सेवा में आसक्त होकर मैं मृगचर्या=मृग के समान विहार करूँगा? वह उत्तम रात्री कब आयेगी कि जब काउस्सग्ग ध्यान में रहे मेरे शरीर को खम्भे की भ्रांति से बैल अपनी खुजली के लिए कंधा या गर्दन घिसेंगे? मेरे लिए कब वह मंगलमय शुभ घड़ी आयेगी जब मैं स्खलित आदि वाणी के दोषों से रहित श्री आचारांग आदि सूत्रों का अभ्यास करूंगा ? अथवा वह शुभ समय कब होगा कि जब मैं अपने शरीर को नाश करने के लिए तत्पर बने जीव के प्रति भी करूणा की विनम्र नजर देखूगा ? या कब गुरू महाराज अल्पभूल को भी कठोर वचनों से जाग्रत करते हए मैं हर्ष के वेग से परिपूर्ण रोमांचित होकर गुरू की शिक्षा को स्वीकार करूंगा? और वह कब होगा कि जब लोक-परलोक में निरपेक्ष होकर मैं आराधना करके प्राण त्याग करूंगा?
इस प्रकार संवेग रंग प्राप्त करते राजा जब विचार करता था उस समय संसार की अनित्यता की विशेषता बताने के लिए मानों न हो, इस तरह सूर्य का अस्त हो गया। उसके पश्चात् सूर्य की लाल किरण के समूह से व्याप्त हुआ जीवलोक मानो जगत का भक्षण करने की इच्छा वाला यम क्रूर आँखों की प्रभा के विस्तार से घिरा हो ऐसा लाल दिखा, अथवा विकास होती संध्या पक्षियों के कलकलाट से मानों ऐसा कहीं हो कि यम के समान यह अंधकार फैल रहा है, इसलिए हे मनुष्यों! आत्महित करना चाहिए। फिर मुनि के समान रात्री के आवेग को निष्फल करने वाला और अंधकार को हटाने वाला तेज से निर्मल तारा समूह प्रकाशित हुआ। फिर समय होने पर जैसे सीप में से मोती का समूह प्रगट होता है वैसे-वैसे चन्द्र पूर्व दिशा रूप शुक्ति (सीप) संपुट में उदय हुआ। इस प्रकार रात्री का समय हुआ तब रात्री के प्रथम प्रहर के कार्य करके सुखशय्या में बैठकर राजा विचार करने लगा कि :-वह पुर, नगर, खेटक, कर्बट, मंडल, गाँव आश्रव आदि धन्य हैं कि जहाँ पर तीन जगत के गुरू श्री महावीर परमात्मा विचरते हैं। यदि तीन जगत के एक बन्धुरूप भगवान इस नगर में पधारे तो मैं दीक्षा लेकर दु:खों को तिलांजली दे दूं।