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________________ ४७२ श्री संवेगरंगशाला मात्र भी इस स्थान पर रहना योग्य नहीं है। हे देव ! अपनी शक्ति के अतिरिक्त कार्य आरम्भ करना ज्ञानियों ने मरण का मूल कारण कहा है, इस लिए सर्व प्रकार से भी अपने आत्मा का ही रक्षण करना चाहिये । हे देव ! अभी भी अखण्ड सेना शक्ति वाले आप यदि युद्ध से रुक जाओगे, तो शत्रु ने भाव को नहीं जानने से आप अपने नगर में निर्विघ्न पहंच जाओगे । अन्यथा भाग्यवश हार जाने से और शत्रुओं ने भागते हुए भी रोक देने से, असहायक बिना आपको भागना मुश्किल हो जायेगा। इस प्रकार मन्त्रियों के वचन रूपी गाढ़ प्रतिबन्ध से निर्भय भी कनक राजा युद्ध से वापिस लौटे, बड़े पुरुष स्पष्ट समय के जानकार होते हैं। फिर शत्रु को हारे हुए और भागते देखकर महेन्द्र सिंह राजा भी करूणा से उसको प्रहार किये बिना वापिस चला। मान भंग होने से और हृदय में दृढ़ शोक प्रगट होने से अपने आपको मरा हुआ मानता कनकरथ ने वापिस लौटते सुंसुमार पुर में इन्द्र महाराज के समूह से सेवित चरण कमल वाले श्री मुनि सुव्रत स्वामी को पधारे हुए देखा। तब राज चिन्हों को छोड़कर उपशम भाव वाला वेश धारण करके गाढ़ भक्ति से तीन बार प्रदक्षिणा देकर गणधर मुनिवर और केवल ज्ञनियों से घिरे हुए जगतनाथ परमात्मा को वन्दन करके राजधर्म सुनने के लिए शुद्ध भूमि के ऊपर बैठा। क्षणभर प्रभु की वाणी को सुनकर और फिर युद्ध की परिस्थिति को याद करके विचार करने लगा कि मेरे जीवन को धिक्कार हो कि जिस पूर्व पूण्य के नाश होने से इस तरह शत्रु से हारा हुआ पराक्रम वाले और सत्त्व नष्ट होने से मेरी अपकीर्ति बहुत फैल गई है। इस तरह बार-बार चिन्तन करते निस्तेज मुख वाला प्रभु को नमस्कार करके समवसरण से निकलते राजा को करूणा वाले विद्युतप्रभ नामक इन्द्र के सामानिक देव से कहा कि-हे भद्र ! इस अति हर्ष के स्थान पर भी हृदय में तीक्ष्ण शल्य लगने के समान तू इस तरह संताप क्यों करता है ? और नेत्रों को हाथ से मसलकर नीलकमल समान शोभा रहित गीली हुई क्यों धारण करता है ? उसके बाद आदरपूर्वक नमस्कार करते मिथिला पति ने उत्तर दिया कि-आप इस विषय में स्वयंमेव यथा स्थित ज्ञान से जानते हैं । तो यहाँ इस विषय में मैं क्या कह ? अनेक भूतकाल में हो गये और अत्यन्त भविष्य काल हो गये उसके कार्यों को भी निश्चय जानते हैं उनको यह जानना वह तो क्या है ? जब राजा ने ऐसा कहा तब अवधि ज्ञान से तत्व को जानकर विद्युतप्रभ देव ने इस तरह कहा कि - अहो ! तू शत्र से पराभव होने से कठोर दुःख को हृदय में धारण करता है, परन्तु श्री जिनेश्वर की भक्ति को दुःख
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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