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________________ ४६७ श्री संवेगरंगशाला में प्रतिबन्ध, यह वर्तमान काल में सराग संयम वाले मुनियों का निश्चय प्रशस्त है। अथवा शिव सुख साधक गुणों की साधना में हेतुभूत द्रव्यों में भी शिव साधक गुणों की साधना में, अनुकूल क्षेत्र में, शिव साधक गुणों की साधना के अवसर रूप काल में, और शिव साधक गुण रूप भाव में भी प्रतिबन्ध को करे । तत्त्व से तो प्रशस्त पदार्थों में प्रतिबन्ध करना, उसे भी केवल ज्ञान रूपी सूर्य के प्रकाश को अत्यन्त रोकने वाला कहा है। इसी कारण जगत गुरू श्री वीर परमात्मा में प्रतिबन्ध से युक्त श्री गौतम स्वामी चिरकाल उत्तम चारित्र को पालन करने वाले भी केवल ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सके । इसलिए भी देवानुप्रिय ! इस संसार में यदि शुभ वस्तु में यह प्रतिबन्ध इस प्रकार का परिणाम वाला अर्थात् केवल ज्ञान रोकने वाला है तो इससे क्या हुआ? जीव सुखों का अर्थी है और सुख प्रायः इस संसार में संयोग से होता है, इसलिए जीव सुख के लिए द्रव्यादि के साथ संयोग को चाहता है। परन्तु द्रव्य अनित्य होने से उसका नाश हमेशा चलता है । क्षेत्र भी सदा प्रीतिकर नहीं होता है, काल भी बदलता रहता है और भाव भी नित्य एक स्वभाव नहीं है । किसी को भी उस द्रव्यादि के साथ जो कोई भी संयोग पूर्व में हआ है, वह वर्तमान काल में है और भविष्य में होगा वे सभी अन्त में अवश्य वियोग वाला ही है। इस तरह द्रव्यादि के साथ का संयोग और अन्य में अवश्य वियोग वाला हो, तो द्रव्यादि में प्रतिबन्ध करने से कौन से गुण को प्राप्त करेगा? दूसरी बात यह है कि जीवद्रव्य आदि द्रव्यों का परस्पर अन्यत्व है और अन्य के आधीन जो सुख है वह परवश होने से असुख रूप ही है। इसलिए हे चित्त ! यदि तू प्रथम से ही पराधीन सुख में प्रतिबन्ध को नहीं करे, तो उसके वियोग से होने वाला दुःख को भी तू नहीं प्राप्त करेगा। यहाँ मूढ़ात्मा संसार गत पदार्थ के समूह में जैसे-जैसे प्रतिबन्ध को करता है वैसे-वैसे गाढ़-अतिगाढ़ कर्मों का बन्धन करता है। इतना भी विचार नहीं करता कि जिस पदार्थ में प्रतिबन्ध करता है, वह पदार्थ निश्चय विनाशी, असार और विचित्र संसार का हेतुभूत है । इसलिए यदि तू आत्मा का हित चाहता है, तो भयंकर संसार से भय धारण कर । पूर्व में किए पापों से उद्विग्न हो । और प्रतिबन्ध का त्याग कर । जैसे-जैसे आसक्ति का त्याग होता है, वैसे-वैसे कर्मों का नाश होता है और जैसे-जैसे वह कर्म कम होते हैं, वैसे-वैसे मोक्ष नजदीक आता जाता है। इसलिए हे मुनिवर्य ! आराधना में मन को लगाकर और सभी पाप के प्रतिबन्ध को सर्वथा त्याग कर नित्य आत्मारामी बन। इस तरह प्रतिबन्ध त्याग नामक पांचवाँ अन्तर द्वार कहा है । अब सम्यक्त्व सम्बन्ध से छठा अन्तर द्वार कहता हूँ।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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