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________________ श्री संवेगरंगशाला ४६३ (१) अज्ञान :- ज्ञानियों ने ज्ञान के अभाव को अज्ञान कहा है और वह निश्चय ही सारे जीवों का भयंकर शत्रु है । कष्टों से भी यह अज्ञान परम कष्टकारी है कि जिससे पराधीन बना यह जीव समूह अपने भी हित अहित के अर्थ को अल्पमात्र भी जान नहीं सकता है । केवल यहाँ ज्ञानाभव वह अल्पता की अपेक्षा से जानना, अर्थात् अल्पज्ञान को अज्ञान कहा है । परन्तु सर्वथा ही अभाव नहीं समझना । जैसे कि - यह कन्या छोटे पेट वाली है । यद्यपि ज्ञान की अल्पता होने पर भी शास्त्र के अन्दर माषतुष आदि को केवल ज्ञान हुआ ऐसा सुना जाता है, तो भी निश्चय अति ज्ञानत्व ही श्रेष्ठ है । क्योंकि -- जैसेजैसे अतिशय रूप रस के विस्तार से भरपुर नया-नया श्रुत का अवगाहन करता है वैसे-वैसे नया-नया संवेग रूप श्रद्धा से मुनि प्रसन्नता का अनुभव करता है । मापतुष मुनि आदि को उत्तम गुरू की परतन्त्रता से निश्चय ज्ञानीत्व ही योग्य है, फिर भी बहुत ज्ञान के अभाव से अज्ञान जानना । तथा प्रायः कर प्रमाद दोष से जीवों को अज्ञान होता है, इसलिए कारण में कार्य के उपचार से अज्ञान को ही प्रमाद कहा है । (२) मिथ्या ज्ञान :- थोड़ा भी जो कुछ भव का अन्त कारण होता है वह सम्यग् ज्ञान माना गया है और दूसरा ज्ञान ऐसा नहीं है, उसे यहाँ मिथ्या ज्ञान कहा है। पूर्व में मिथ्यात्व पाप स्थानक के अन्दर वर्णन किया है, इस ग्रन्थ में है उस मिथ्या ज्ञान को जान लेना । (३) संशय : - यह भी मिथ्या ज्ञान का ही अंश है । क्योंकि श्री जैनेश्वर के प्रति अविश्वास से होता है, वह देश गत और सर्वगत दो प्रकार से होता है । यह संशय श्री जैन कथित जीवादि पदार्थों में मन को अस्थिर करने से होता है और निर्मल भी सम्यक्त्व रूपी महारत्न को अति मलिन करता है । इस कारण जीवादि पदार्थ में संशय नहीं करना चाहिए । (४) - (५) राग और द्वेष :- इस प्रमाद को भी पूर्व में राग द्वेष पाप स्थानक के द्वार में कहा गया है, इसलिए हे क्षपक मुनि ! तू उसका भी अवश्य त्याग कर । क्योंकि इसके बिना जीव सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त करता है, या सम्यक्त्व प्राप्त करने पर वह संवेग को नहीं प्राप्त करता और विषय सुखों में राग करता है वह दोष राग-द्वेष का कारण है। बार-बार उपद्रव करने वाला समर्थ शत्रु ऐसा अहितकर नहीं करता उतना निरंकुश राग और द्वेष अहित करता है । राग-द्वेष इस जन्म में श्रम, अपयश और गुण विनाश करता है तथा परलोक में शरीर और मन में दुःख को उत्पन्न करता है । धिक्कार हो । अहो
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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