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________________ श्री संवेगरंगशाला आर्य हो और राज्य की सीमा न हो, और जो संयम की वृद्धि में एक हेतुभूत हो उस देश में साधु महाराज को विचरणा योग्य है। गुणकारी राज कथा :–प्रचंड भुजा दण्डरूपी मण्डप में जिसने चक्रवर्ती की सम्पूर्ण ऋद्धि को स्थापित की है अर्थात जिसने अपने भुजाबल से छह खण्ड की ऋद्धि प्राप्त कर रक्षण करता है जिसका पाद पीठ नमस्कार करते मुकुट. बद्ध राजाओं के मस्तक मणि की किरणों से व्याप्त था परन्तु भरत महाराजा के अंगुली से रत्न जड़ित अंगूठी निकल जाने से संवेग वाला हुआ, और उसने अन्तःपुर के मध्य रहते हुए भी केवल ज्ञान प्राप्त किया। इस प्रकार स्त्री, भक्त, देश और राजा की कथा भी धर्म रूपी गुण का कारण होने से वह विकथा नहीं है। इस तरह यदि विकथा रूपी ग्रह से आच्छादित धर्म तत्व वाले का धर्म का नाश होता है और धर्म के नाश से गुण का नाश होता है। इसलिए संयम गुण में उपयोग वाले को श्रेष्ठ धर्म कथा की प्रवृत्ति करना ही योग्य है। इस प्रकार पाँचवाँ विकथा नाम का प्रमाद कहा है और इसे कहने से मद्यादि लक्षण वाले पाँचों प्रकार के प्रमाद कहा गया है। जुआ प्रमाद का स्वरूप :-शास्त्र के जानकार ज्ञानियों ने द्युत नामक प्रमाद को छठा प्रमाद रूप में कहा है और उसे इस लोक और परलोक का बाधक रूप भी कहा है। उसमें इस लोक के अन्दर जुआ नामक प्रमादरूपी दुर्जय शत्रु से हारे हुए मनुष्य के समान चतुरंग सैन्य सहित समग्र राज्य को भी क्षण में गँवा देता है। वैसे धन, धान्य, क्षेत्र, वस्तु, सोना, चाँदी, मनुष्य, पशु और सारा घर का सामान संपत्ति भी गँवा देता है। अधिक क्या कहें ? शरीर के ऊपर रही लंगोट को भी जुये में हार कर मार्ग में गिरे पत्ते रूपी कपड़े से गुह्य भाग को ढांकता है ऐसा मूढ़ात्मा वह जुआरी सर्वस्व हारने पर भी निश्चय हाथ पैर आदि शरीर के अवयवों को भी जुआरियों को होड़ शर्त में देकर जुए को ही खेलता है। जुआरी रणभूमि में डरने वाला, धन के नाश बेकदरी वाला और शत्र को जीतने वाला के एक लक्ष्य वाला राजपुत्र के समान विलास करता है। अथवा जुआरी भूख प्यास का अवगणना करके ठंडी गरमी डाँस मच्छर की भी अवगणना कर, अपने सुख, दुःख को भी नहीं गिनते, स्वजन आदि का राग नहीं करते, दूसरों के द्वारा होती हांसी को भी नहीं मानता, शरीर की भी रक्षा नहीं करते, वस्त्र रहित शरीर वाला, निद्रा को छोड़ते तथा चपल घोड़े के समान चंचल इन्द्रियों के वेग को दूसरी ओर खींचकर प्रस्तुत विषय में स्थिर एकाग्र धारण करने वाला ध्यान में लीन महर्षि के समान है, अर्थात् महर्षि के समान जुआरी होता है। जीर्ण फटे हुए
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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