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________________ श्री संवेगरंगशाला ४५३ अगङदत्त आदि की कथा 1 उज्जैन नगरी में जितशत्रु नामक राजा को मान्य अमोघ रथ नाम से रथक था । उसे यशोमती नामक स्त्री थी और अगङदत्त नाम का पुत्र था, वह बालक ही था तब अमोघरथ मर गया था और उसकी आजीविका राजा ने दूसरे रथिक को दी । यशोमती उसे विलास करते और अपने पुत्र को कलाकौशल्य से सर्वथा रहित देखकर शोक से बार-बार रोने लगी । यह देख कर पुत्र ने माता को पूछा कि हे माता ! तू हमेशा क्यों रोती है ? अति आग्रह होने पर उसने रोने का कारण बतलाया । इससे पुत्र ने कहा कि - माता ! क्या यहाँ कोई भी ऐसा व्यक्ति है जो कि मुझे कलायें सिखा सके ? उसने कहा कि - पुत्र ! यहाँ तो कोई नहीं है, परन्तु दृढ़ प्रहरी नाम का कौशाम्बी पुरी में तेरे पिता का मित्र है । इससे वह शीघ्र वहाँ उसके पास गया । उसने भी पुत्र के समान रखकर बाण शास्त्र आदि कलाओं में अति कुशल बनाया, और अपनी विद्या दिखाने के लिए राजा के पास ले गया । अगङदत्त ने बाण शस्त्र आदि का सारा कौशल्य बतलाया, इससे सब लोग प्रसन्न हुए परन्तु केवल एक राजा प्रसन्न नहीं हुआ, फिर भी उसने कहा कि तुम्हें कौन सी आजीविका दूंगा ? उसे कहो । फिर अति नम्रता से मस्तक नमाकर अगङदत्त ने कहा कि - यदि मुझे धन्यवाद नहीं दो तो अन्य दान से मुझे क्या प्रयोजन है ? उस समय नगर के लोगों ने राजा को निवेदन किया कि - हे देव ! इस समग्र नगर को गूढ़ प्रवृत्ति वाला कोई चोर लूट रहा है, इसलिए आप उसका निवारण करो । तब राजा ने नगर के कोतवाल को कहा कि - हे भद्र ! तुम सात दिन के अन्दर चोर को पकड़कर ले आओ। उसके बाद जब आंखें बन्द कर नगर का कोतवाल कुछ भी नहीं बोला तब 'अब समय है' ऐसा समझ कर अगङदत्त ने कहा कि हे देव ! कृपा करो । यह आदेश मुझे दो । कि जिससे सात रात में चोर को कहीं पर से पकड़कर आपको सौंप दूं । फिर राजा ने उसे आदेश दिया। वह राज दरबार से निकला और विविध वस्त्र धारण करता तथा साधु वेश धारक संन्यासी आदि की खोज करता था। चोर लोग प्रायः कर शून्य घर, सभा स्थान, आश्रम और देव कुलिका आदि स्थानों में रहते हैं, इसलिए गुप्तचर पुरुषों द्वारा मैं उन स्थानों को देखूं । ऐसा विचार करके सर्व स्थानों को सम्यग् प्रकार से खोजकर उस नगरी से निकला और एक उद्यान में पहुँचा । वहाँ मैले वस्त्रों को पहनकर एक आम्र वृक्ष के नीचे बैठकर चोर को
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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