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________________ श्री संवेगरंगशाला ४५१ से इस जन्म में सर्व लोग में निंदा का पात्र बनता है और परलोक में जरा मरण से दुस्तर संसार बढ़ता है । फिर पुण्य, पाप को खेलने की चारगति संसार रूप अश्व को दौड़ने की भूमि में जीव रूप गेंद दंडे के समान कषाय रूपी प्रेरक की मार खाते भ्रमण करता है । दुष्ट कषाय निश्चय सर्व अवस्थाओं में भी जीवों का अरपूट अनिष्ट करने वाला है, क्योंकि पूर्व मुनियों ने भी कहा है कि कषाय रूपी कटु वृक्ष का पुष्प और फल दोनों दुःखदायी हैं । पुष्प से कुपित हुआ पाप का ध्यान करता है और फल से पाप का आचरण करता है । श्री जिनेश्वर भगवान ने कहा है कि - निश्चय सर्व मनुष्यों का जो सुख और सर्व उत्तम देवों का भी जो सुख है, इससे भी अनन्तगुणा सुख कषाय ने वाले को होता है । इसीलिए लोक में पीड़ा कारक माना हुआ भी खल पुरुषों का आक्रोश, वध आदि को उत्तम तपस्वी मुनियों ने चंदन इस समान मानते हैं। धीर पुरुष, अक्ष जीवों को सुलभ आक्रोश, वध करना, मारना और धर्म भ्रष्ट करना उसके उत्तरोत्तर अभाव में ही लाभ मानते हैं । अर्थात् धीर पुरुष अज्ञानी आत्मा पर आक्रोश आदि करना लाभ नहीं मानते हैं । अहो ! हुए कषायों को बार-बार जीतने पर भी उसे विजय करने की इच्छा वाले मुनियों का पुनः उदय हो जाता है । क्योंकि सिद्धान्त में कहा है कि गुण का घातक ग्यारहवें गुण स्थान पर उपशम को प्राप्त करते कषाय जिन तुल्य यथा ख्यात चारित्र वाले को भी गिराता है तो पुनः शेष सराग चारित्र वाले में रहा कषाय उसका क्या नहीं करता है । कषाय से कलुषित जीव भयंकर चार गति रूप संसार समुद्र में जैसे खण्डित जहाज पानी से भर ता है वैसे पाप से भर जाता है । और क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, अज्ञान, कंदर्प, दर्प और मत्सर ये जीव के महा शत्रु हैं । निश्चय ये जीव के सर्वधन को हरण करने वाला और अनर्थों का करने वाला है, इसलिए सम्यग् विवेक रूप प्रतिस्पर्धी सैन्य की रचना कर उसे आगे बढ़ने न दे इस प्रकार कर ! दुःख से हरण करने योग्य कषाय रूपी प्रचंड शत्रु सर्व जगत को पीड़ित करता है इसलिए वह धन्य है कि जो उस कषायों को सम्यग् हरण कर समता का आलिंगन करते हैं । जो इस संसार में धीर पुरुष भी काम और अर्थ के राग से पीड़ित होता है उसमें मैं मानता हूँ कि - निश्चय दुष्ट कषायों का विलास कारण है । इसलिए किसी भी तरह तुम निश्चय करो कि जिससे कषायों का उदय न हो अथवा उदय होते वह कषाय सुरंग की उड़ती धूल के समान अन्तर में ही समा जाए। यदि अन्य लोग में कुशास्त्र रूप आंधी से प्रेरित
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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