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________________ श्री संवेगरंगशाला ४३३ पास दीक्षित हुआ। संवेग से युक्त बुद्धिमान और विनय में तत्पर उसने धर्म की प्रवर श्रद्धा से सूत्र और अर्थ से ग्यारह अंगों का अभ्यास किया। परन्तु भविष्य में कभी किस तरह विहार करते पूर्व के थाल को देखूगा, इस तरह जानने की इच्छा से पूर्व में सम्भाल कर थाल के टुकड़े रखे थे, उसे नहीं छोड़ता था। अनियत विहार की मर्यादा से विचरते वह किसी समय उत्तरमथुरा नगरी में गया और भिक्षार्थ घूमते किसी दिन वह धनसार सेठ के सुन्दर मकान में पहुंचा और उसी समय स्नान करके सेठ भोजन के लिये आया, उसके आगे वही चाँदी का थाल रखा और नवयौवन से मनोहर उसकी पुत्री भी पंखा लेकर आगे खड़ी थी । साधु भी जब टकटकी दृष्टि से उस टूटे थाल को देखने लगा, तब सेठ भिक्षा दे रहा था तो भी वह देखता नहीं, इससे सेठ ने कहा कि हे भगवन्त ! मेरी पुत्री को क्यों देखते हो ? मुनि ने कहा कि-भद्र ! मुझे आपकी पुत्री से कोई प्रयोजन नहीं है ? किन्तु यह थाल तुझे कहाँ से मिला है, उसे कह ? सेठ ने कहा कि-भगवन्त ! दादा परदादा की परम्परा से आया है। साधु ने कहा कि-सत्य बोलो ! तब सेठ ने कहा-भगवन्त ! मुझे स्नान करते यह सारी स्नान की सामग्री आकर मिली है और भोजन करते यह भोजन के बर्तन आदि साधन मिले हैं तथा अनेक निधानों द्वारा भण्डार भी पूर्ण भर गया है। मुनि ने कहा कि-यह सारा मेरा था। इससे सेठ ने कहा कि-ऐसा कैसे हो सकता है ? तब मुनि ने विश्वास करवाने के लिए वहाँ से थाल मँगवाकर पूर्व काल में संग्रह कर रखा हुआ उस थाल के टुकड़े को दिया और उसे वहाँ लगाया, फिर तत्त्व के समान तत्त्स्वरूप हो इस तरह वह टुकड़ा शीघ्र अपने स्थान पर थाल में जुड़ गया और मुनि ने अपना गाँव, पिता का नाम, वैभव का नाश आदि सर्व बातें कहीं। इससे यह मेरा जमाई है। ऐसा जानकर हृदय में महान् शोक फैल गया, अश्रु जलधारा बहने लगी, सेठ साधु को आलिंगन कर अत्यन्त रोने लगा। विस्मित मन वाले परिवार को महामुसीबत से रोते बन्द करवाया। फिर वह अत्यन्त राग से, मनोहर वाणी से साधु को इस प्रकार कहने लगातेरा सारा धन समूह उसी अवस्था में विद्यमान है और पूर्व में जन्मी हुई यह मेरी पुत्री भी तेरे आधीन है। यह सारा नौकर वर्ग तेरी आज्ञानुसार वर्तन करने वाला है, इसलिए दीक्षा छोड़कर अपने घर के समान स्वेच्छापूर्वक विलास कर । मुनि ने कहा कि-प्रथम पुरुष काम भोग को छोड़ता है अथवा तो पुण्य का नाश होते वह विषय पहले पुरुष को छोड़ता है। इस तरह जो छोड़कर चला जाता है, उन विषयों को स्वीकार करना वह मानी पुरुषों को
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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