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________________ श्री संवेगरंगशाला ४२३ प्रशंसा की थी इसलिए देता हूँ। मन्त्री ने कहा- मैंने तो 'लोगों के काव्यों को वह अखण्ड बोल सकता है' ऐसा मानकर उसकी प्रशंसा की थी इससे राजा ने पूछा कि-ऐसा किस तरह ? मन्त्री ने कहा-क्योंकि मेरी पुत्री भी इस तरह बोल सकती है। फिर योग्य समय पर वररूचि स्तुति करने आया, तब मन्त्री ने अपनी पुत्री को परदे में रखा उसका प्रथम बार बोलते सुनकर सेना पुत्री ने याद कर लिया इससे राजा के सामने अखण्ड बोल दिया, इससे दूसरी बार सुनकर वेणापुत्री को याद हो गया और उसको बोलते तीसरी बार सुनकर रेणापुत्री को याद हो गया और वह भी लम्बे काल पूर्व में याद किया हो और स्वयं मेव रचना की हो वैसे राजा के सामने बोली इससे क्रोधित हुए राजा ने वररूचि का राज्य सभा में आना बन्द कर दिया। इसके बाद वररूचि गंगा में यंत्र के प्रयोग से रात्री के समय उसमें रख आता था और प्रभात समय में गंगा की स्तुति करके, पैर से यंत्र को दबाने से उसमें से सोना मोहर उछलते हुए को ग्रहण करता था और लोगों के आगे कहता था कि-स्तुति से प्रसन्न हुई गंगा मैया मुझे यह देती है। इस तरह बात फैलते यह बात राजा ने सुनी और उस मन्त्री को कहा। मन्त्री ने कहा कि-'हे देव ! यदि मेरे समक्ष गंगा दे तो गंगा ने दिया है ऐसा मानूंगा। अतः प्रभात में गंगा ही जायेंगे।' राजा ने स्वीकार किया। फिर मन्त्री ने सायंकाल में अपना विश्वास आदमी को आदेश दिया कि-हे भद्र ! गंगा में जाकर छुपकर रहना और वररूचि जल में जो कुछ रखे वह मुझे लाकर देना। फिर उस पुरुष ने जाकर वहाँ से सोना मोहर की गठरी लाकर दी। प्रभात में नन्दराजा और मन्त्री वहाँ गये और पानी में डूबते उसे गंगा की स्तुति करते देखा, स्तुति करने के बाद उसने उस यन्त्र को हाथ पैर से चिरकाल दबाया, फिर भी जब गंगा ने कुछ भी नहीं दिया, तब वररूचि अत्यन्त दुःखी होने लगा। उस समय मन्त्री शकडाल ने सोना मोहर की गठरी राजा को प्रगट कर दिखाई और राजा ने उसकी हांसी की, इससे वररूचि मन्त्री के ऊपर क्रोधित हुआ, और उसका छिद्र देखने लगा। एक दिन श्रीयक के विवाह करने की इच्छा वाला शकडाल राजा को भेंट करने योग्य विविध शस्त्रों को गुप्त रूप में तैयार करवा रहा था। यह बात उपचरित्र रूप केवल बाह्य वृत्ति से सेवा करने वाली मन्त्री की दासी ने वररूचि को कही। इस छिद्र का निमित्त मिलते ही, उसने छोटे-छोटे बच्चों को लड्डू देकर तीन मार्ग, चार मार्ग पर मुख्य राज मार्ग पर इस तरह
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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