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________________ श्री संवेगरंगशाला ४११ अनिच्छा से भी पिता के वचन का मान किया और मुनि ने उसे दीक्षा दी । सर्व कर्त्तव्य की विधि की शिक्षा दी और उचित समय में शास्त्रार्थ को विस्तार-पूर्वक अध्ययन करवाया, फिर केवल मृत्यु के भय से दीक्षा लेने वाला भी वह विविध सूत्र अर्थ का परावर्तन करते जैन धर्म में स्थिर हुआ और विनय करने में रक्त बना । परन्तु मद के अशुभ फल को जानते हुये भी वह जाति मद को नहीं छोड़ता है, आखिर में उसकी आलोचना किये बिना मरा और सौधर्म देवलोक देव हुआ। वहाँ आयुष्य का क्षय होते ही वहाँ से च्यवन कर जाति मद के दोष से नंदी वर्धन नगर में चण्डाल पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ, पूर्व जन्म में किए अल्प सुकृत्य के योग से वह रूपवान और सौभाग्यशाली हुआ और क्रमश: वह मानवों के मन और आँखों के आनन्दप्रद यौवनवय को प्राप्त किया । विलास करते नागरिकों को देखकर वह इस तरह विचार करता है कि - शिष्टजनों के निन्दा पात्र मेरे जीवन को धिक्कार हो ! कि जिस चण्डाल की संगत से मेरा यह श्रेष्ठ यौवन लक्ष्मी भी शोभा रहित बनी है और अरण्य की कमलिनी के समान उत्तम पुरुषों को सुख देने वाला नहीं बना । हे हत विधाता ! यदि तूने मेरा जन्म निन्दित कुल में दिया तो निश्चय निष्फल रूपादि गुण किस लिए दिया ? अथवा ऐसे निरर्थक खेद करने से भी क्या लाभ? उस देश में जाऊँ कि जहाँ मेरी जाति को कोई मनुष्य नहीं जाने । इस तरह विचार कर अपने स्वजन और मित्रों को कहे बिना, कोई भी नहीं जाने इस तरह वह अपनी नगरी से निकल गया । और चलते हुए अति दूर प्रदेश में रहे कुंडिन नगर में वह पहुँचा । वहाँ राजा के ब्राह्मण मन्त्री की सेवा करने लगा, अपने गुणों से मंत्री की परम प्रसन्नता का पात्र बना और निःशंकता से पाँच प्रकार के विषय सुख को भोगने लगा । एक समय संगीत में अति कुशल उसके मित्र श्रावस्ती से घूमते हुए वहाँ आए और मन्त्री के सामने गीत गाते उन्होंने उसे देखा । इससे हर्ष के आवेश वश भावी दोषों का विचार किए बिना ही उन्होंने उसे कहा कि - हे मित्र ! यहाँ आओ, जिससे बहुत काल के बाद हुए तेरे दर्शन के उचित वे आलिंगन आदि करें। और आपके पिता आदि का वृत्तान्त सुनाओ। फिर उनको देखकर वह मुख को छुपाकर चला गया, इससे विस्मय प्राप्त कर मन्त्री ने उससे असली बात पूछी। सरलता से उन्होंने यथास्थिति कह दी इससे क्रोधित होकर उसे शूली के प्रयोग से मार देने की आज्ञा की । राज पुरुष उसे गधे ऊपर बैठाकर तिरस्कार पूर्वक नगर में घुमाकर शूली के पास ले गये । उस
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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