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________________ श्री संवेगरंगशाला प्रतिपक्ष में अर्थात् अहिंसा सत्यादि में उद्यम कर । इस तरह अनुशास्ति द्वार में अट्ठारह पाप स्थानक का यह प्रथम अन्तर द्वार कहा है अब आठ मदस्थान का दूसरा अन्तर द्वार कहते हैं । ४०८ दूसरा अनुशास्ति द्वार : - गुरु महाराज क्षपक मुनि को अट्ठारह पाप स्थान से विरक्त चित्त वाला जानकर सविशेष गुण की प्राप्ति के लिए इस प्रकार कहे कि - हे गुणाकर ! हे आराधनारूपी महान् गाड़ी का जुआ उठाने में वृषभ समान ! धन्य है, कि तू इस आराधना में स्थिर है, सारे मनोविकार को रोककर त्याग करने योग्य धर्मार्थी को सदा अकरणीय, नीचजन के आदरणीय और गुणधन को लूटने में शत्रु सैन्य समान, अष्टमद का त्याग करना चाहिए | वह १ - जातिमद, २ - कुलमद, ३- रूपमद, ४ - बलमद, ५ - श्रुतमद, ६- तपमद, ७ - लाभमद और ८ - ऐश्वर्यमद हैं इसे अनुक्रम से कहते हैं : १. जातिमद द्वार : - इसमें श्री जैन वचन से युक्त बुद्धिमान तू तीव्र संताप कारक और अनर्थ का मुख्य कारण भूत प्रथम जातिमद नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह जातिमद करने से कालान्तर में तथाविध दुःखद अवस्थान को प्राप्त करवाकर मानी पुरुषों के भी मान को अवश्यमेव मलिन करता है । और बहुत काल तक नीच योनियों में दुःख से पीड़ित जहाँ तहाँ भ्रमण करके वर्तमान में महा मुश्किल से एक बार उच्च गोत्र मिलने पर बुद्धिमान पुरुष को मद करने का अवसर कैसे हो ? अथवा तो जातिमद तब कर सकता है कि यदि वह उत्तम जाति रूप गुण हमेशा स्थिर रहे तो, अन्यथा वायु से फूला हुआ मसक के समान मिथ्यामद करने से क्या लाभ? संसार में कर्मवश से होती उत्तम, मध्यम और जघन्य जातियों को देखकर तत्त्व के सम्यग् ज्ञाता कौन ऐसा मद करे ? संसार में जीव इन्द्रियों की रचना से एक दो तीन आदि इन्द्रिय वाला अनेक प्रकार की जातियों को प्राप्त करता है इसलिए उन जातियों की स्थिरता शाश्वत नहीं होती है । इस संसार में राजा अथवा ब्राह्मण होकर भी यदि जन्मान्तर में वह कर्मवश चण्डाल भी होता है तो उसके मद से क्या लाभ ? और सर्वश्रेष्ठ जाति वाले को भी कल्याण का कारण तो गुण ही है, क्योंकि जातिहीन भी गुणवान लोक में पूजा जाता है । "वेदों का पाठक और जनेऊ का धारक हूँ, इससे लोक में गौरव को प्राप्त करते मैं ब्राह्मण सर्व में उत्तम हूँ" इस तरह जातिमद से उन्मत बना ब्राह्मण भी यदि नीच उद्यम लोगों के घर में नौकर होता है, तो उसे जातिमद नहीं परन्तु मरण का शरण करना योग्य है । जातिमद करने से जीव जाति का नीच गोत्र ही बन्धन करता है इस विषय पर श्रावस्ती वासी ब्राह्मण पुत्र का दृष्टान्त है । वह इस प्रकार है :
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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