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________________ ४०६ श्री संवेगरंगशाला जीव तीव्र वेदना को प्राप्त करता है । इसलिए हे सुन्दर ! चतुराई को प्रगट कर शीघ्र मिथ्यात्व को दूर करके हमेशा सम्यकत्व में ममता रख । यह मिथ्या दर्शन शल्य वस्तु का उलटा बोध कराने वाला है, सद्धर्म को दूषित करने वाला और संसार अटवी में परिभ्रमण कराने वाला है । मन मन्दिर में सम्यक्त्व रूप दीपक ऐसा प्रकाशन कर कि मिथ्यात्व रूप प्रचन्ड पवन तुझे प्रेरणा न कर सके, अथवा ज्ञान रूपी दीपक बुझा न दे । पुण्य के समूह से लभ्य सम्यकत्व रत्न मिलने पर भी मिथ्याभिमान रूपी मदिरा से मदोन्मत्त बना हुआ जीव जमाली के समान नाश करता है । उसका प्रबन्ध इस प्रकार - जमाली की कथा जगत् गुरू श्री वर्धमान स्वामी के पास भगवन्त की बहन का पुत्र जमाली ने राज्य सुख को त्याग कर पाँच सौ राज पुत्रों के साथ दीक्षा ली थी और उत्तम धर्म की श्रद्धापूर्वक संवेग से साधु जीवन की क्रिया में प्रवृत्ति करता था । एक समय पित्त ज्वर की तीव्र पीड़ा से निरूत्साही हुआ, तब उसने शयन के लिए अपने स्थविरों को संथारा बिछाने के लिए कहा। कहने के बाद शीघ्रता से मुनि संथारा बिछा रहे थे तब थोड़े समय को भी काल विलंब के सहन करने में असमर्थ होने से उन्होंने पुनः साधुओं से पूछा कि क्या संथारा बिछा दिया या नहीं । साधुओं ने थोड़ा संथारा बिछाया था फिर भी ऐसा कहा :'संथारा बिछा दिया है' तब जमाली उस स्थान पर आया, और संथारा को बिछाते देखकर सहसा भ्रमणा प्राप्त कर उसने कहा कि हे मुनियो ! असत्य क्यों बोल रहे हो ? जो कि 'बिछाते हुए भी संथारा को 'बिछा दिया' ऐसा बोलते हो ? तब स्थविरों ने कहा कि 'जैसे तीन जगत में जो कार्य प्रारम्भ हो गया उस कार्य को श्री वीर परमात्मा ने किया ऐसा कहते हैं वैसे बिछातेबिछाते संथारा को बिछाया ऐसा कहने में क्या अयुक्त है ? उन्होंने ऐसा कहा फिर भी मिथ्या आग्रह से सम्यक्त्व भ्रष्ट हुआ, इससे 'पूर्ण कार्य होने पर ही वह कार्य हुआ कहना चाहिए' ऐसा गलत पक्ष की स्थापना कर उसमें चंचल बना त्रिलोक बन्धु वीर प्रभु का विरोधी बना । दुष्कर तप करने पर भी मुग्ध मनुष्यों को भ्रम में डालते वह जमाली चिरकाल तक पृथ्वी के ऊपर विचरता था । और अपनी पुत्री को अपने हाथ से दीक्षा दी तथा सदा स्वयं ने साध्वी प्रियदर्शन को अध्ययन करवाया था परन्तु मिथ्यात्व दोष से के अनुसार चलने वाली थी । अहो ! आश्चर्य की बात है जमाली के मत कि तीन जगत
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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