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________________ श्री संवेगरंगशाला ३६५ कि दूसरे पति को स्वीकार करूँ, ऐसी आशा से-'किसलिए दुःखी होऊँ' ऐसा विचार करती थी। उसके बाद मन्त्री ने कहा कि-हे देव ! 'अन्य राजाओं के साथ मैं सन्धि करूँ अथवा नहीं करूँ' इस तरह पूर्व में विचार करता था और महाव्रत ने भी कहा कि-सीमा के राजा कहते थे कि पट्टहस्ति को लाकर दे अथवा उसको मार दे । इस तरह बहुत कहने से मैं भी चिरकाल से झूले के समान शंका से चलचित्त परिणाम वाला रहता था, परन्तु इसकी बात सुनकर सावधान हो गया और अपूर्वी अमूल्य वस्तु भेंट की। उन सबके अभिप्रायों को जानकर प्रसन्न हुआ पुंडरिक राजा ने उनको आज्ञा दी कि-'तुम्हें जो योग्य लगे वैसा करो।' तब इस प्रकार का द्रोह रूप अकार्य करके हम कितने लम्बे काल तक जी सकेंगे? ऐसा कहकर वैराग्य होते उन सबने उसी समय क्षुल्लक के पास दीक्षा ली और सकल जन पूज्य बने । उन महात्माओं ने उनके साथ विहार किया। इस प्रकार इस दृष्टान्त से हे क्षपक मुनि ! तू मन वांछित अर्थ की सिद्धि के लिए असंयम में अरति कर और संयम मार्ग में रति को कर। इस तरह चौदहवें पाप स्थानक को अल्पमात्र कहकर अब पैशुन्य नामक पन्द्रहवाँ पाप स्थानक द्वार कहता हूँ। १५. पैशुन्य पाप स्थानक द्वार :-गुप्त सत्य अथवा असत्य दोष को प्रकाशित रूप जो चुगली का कार्य करता है वह इस लोक में पैशुन्य कहलाता है । मोहमूढ़ इस प्रकार पैशुन्य करने वाला उत्तम कुल में जन्म लेने वाला भी, त्यागी और मुनि भी इस लोक में यह चुगल खोर है' ऐसा बोला जाता है। इस जगत में मनुष्यों की वहाँ तक मित्रता रहती है, जब तक शुभ चित्त और वहाँ तक ही मैत्री भी रहती है जब तक निर्भागी चुगल खोर बीच में नहीं आता है । अर्थात् चुगल खोर चुगली करके सम्बन्ध खत्म कर देता है । अहो ! चुगल खोर लोहार चुगल रूपी अति तीक्ष्ण कुल्हाड़ी हाथ में लेकर नित्यमेव पुरुषों का प्रेम रूपी काष्टों को चीरता है अर्थात् परस्पर वैर करवाता है। अति डरावना, भयंकर जो चुगल खोर कुत्ता रूके बिना लोगों के पीठ पीछे भौंकते हमेशा कान को खाता है अर्थात् दूसरे के कान को भरता है अथवा दो हाथ कान पर रखकर 'मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ' इस तरह बतलाता है। अथवा जैसे एक चुगल खोर सभी की चुगली करता है, वैसे कुत्ता उज्जवल वेष वाले, पड़ौसी, स्वामी, परिचित और भोजन देने वाले को भौंकता नहीं है। अथवा चुगल खोर सज्जनों के संयोग से भी गुणवान नहीं होता है, चन्द्रमण्डल के बीच में रहते हये भी हरिण काला ही रहता है। यदि इस जन्म में एक ही पैशुन्य है तो अन्य दोष समूह से कोई प्रयोजन नहीं है, वह एक ही दोष उभय
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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