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________________ श्री संवेगरंगशाला ३६१ स्नेह घातक है, इन सब दुःखों का कारण यह अभ्याख्यान है। और इससे विरति वाले को इस जगत में इस भव-परभव में होने वाले सारे कल्याण नित्यमेव यथोच्छित स्वाधीन होते हैं । तेरहवें पाप स्थानक से रुद्र जीव के समान अतिशय अपयश को प्राप्त करता है और उससे विरक्त मन वाला अंगर्षि के समान कल्याण को प्राप्त करता है । वह इस प्रकार : रुद्र और अंषि की कथा चम्पा नगर में कौशिकाचार्य नामक उपाध्याय के पास अंगर्षि और रुद्र दोनों धर्म शास्त्रों को पढ़ते थे। वे भी बदले की इच्छा बिना केवल पूजक भाव से पढ़ते थे। उपाध्याय ने अनध्याय (छुट्टी) के दिन उन दोनों को आज्ञा दी कि-अरे ! आज शीघ्र लकड़ी का एक-एक भार जंगल में से ले आओ। प्रकृति से ही सरल अंगर्षि उस समय 'तहत्ति' द्वारा स्वीकार करके लकड़ी लेने के लिये जंगल में गया और दुष्ट स्वभाव वाला रुद्र घर से निकलकर बालकों के साथ खेलने लगा, फिर संध्याकाल के होते वह अटवी को ओर चला और उसने दूर से लकड़ी का बोझ लेकर अंगर्षि को आते देखा। फिर स्वयं कार्य नहीं करने से भयभीत होते उसने लकड़ी के भार को लाती उस प्रदेश से ज्योति यशा नामक वृद्धा को देखकर उसे मारकर खड्डे में गाड़ दिया और उसकी लकड़ियाँ उठाकर शीघ्रता से गुरू के पास आया, फिर वह कपटी कहने लगा कि-हे उपाध्याय ! आपके धर्मो शिष्य का चारित्र कैसा भयंकर है ? क्योंकि आज सम्पूर्ण दिन खेल तमाशे कर अभी वृद्धा को मारकर, उसके लकड़ी के गठे को लेकर वह अंगर्षि जल्दी-जल्दी आ रहा है । यदि आप सत्य नहीं मानो तो पधारो कि जिसने उस वृद्धा की दशा की है और जहाँ उसे गाड़ा है, उसे दिखाता हूँ । जहाँ इस तरह कहता था इतने में लकड़ी का गट्ठा उठाकर अंगर्षि वहाँ आया, इससे क्रोधित हए उपाध्याय ने कहा कि-अरे पापी ! ऐसा अकार्य करके अभी तू घर पर आता है ? मेरी दृष्टि से दूर हट जा, तुझे पढ़ाने से क्या लाभ ? वज्रपात समान यह दुःसह कलंक सुनकर अति खेद को करते वह अंगर्षि इस तरह विचार करने लगा कि-हे पापी जीव ! पूर्व जन्म में इस प्रकार का कोई भी कर्म तुने किया होगा, जिसके कारण यह अति दुःसह संकट आया है। इस तरह संवेग को प्राप्त करते, उसने पूर्व में अनेक जन्मों के अन्तर चारित्र धर्म की आराधना की थी ऐसा जाति स्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ और शुभ ध्यान से कर्मों का विनाश करके केवल ज्ञान रूपी लक्ष्मी को प्राप्त किया। तथा देव और मनुष्यों ने उसकी पूजा की और रुद्र को उसी देवों ने 'पापी तथा
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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