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________________ श्री संवेगरंगशाला ३८६ ब्राह्मण को देना चाहिये । राजा ने उसे स्वीकार किया और उस रुद्रदेव को ही उसको दे दिया। वह उसके साथ विषय सेवन करते काल व्यतीत करने लगा। एक समय उसने यज्ञ को प्रारम्भ किया और अन्य देशों से वेद के अर्थ विचक्षण बहुत पण्डित, ब्राह्मण विद्यार्थियों का समूह वहाँ आया। फिर वहाँ यज्ञ क्षेत्र में अनेक प्रकार का भोजन तैयार हुआ था। वहाँ मातंग मुनि मासक्षमण के पारणा पर भिक्षा के लिये आये और तप से सूखे काया वाले, अल्प उपधि वाले, मैले-कुचले और कर्कश शरीर वाले उनको देखकर विविध प्रकार से हँसते धर्म द्वेषी उन ब्राह्मण विद्यार्थियों ने कहा कि -हे पापी ! तू यहाँ क्यों आया है ? अभी ही इस स्थान से शीघ्र चले जाओ। उस समय यक्ष ने मुनि के शरीर में प्रवेश करके कहा कि मैं भिक्षार्थ आया हूँ, अतः ब्राह्मणों ने सामने ही कहा कि जब तक ब्राह्मणों का नहीं खाओ और जब तक प्रथम अग्निदेव को तृप्त नहीं करते तब तक यह आहार क्षुद्र को नहीं दिया जाता, इसलिए हे साधु तू चला जा ! जैसे योग्य समय पर उत्तम क्षेत्र में विधिपूर्वक बोया हुआ बीज फलदायक बनता है, वैसे पित, बाह्मण और अग्निदेव को दान देने से फल वाला बनता है। फिर मुनि के शरीर में प्रवेश किए यक्ष ने कहा कि तुम्हारे जैसे हिंसक, झूठा और मैथुन में आसक्त पापियों के जन्म मात्र से ब्राह्मण नहीं माने जाते हैं । अग्नि भी पाप का कारण है, तो उसमें स्थापन करने से कैसे भला हो सकता है ? और परभव में गये पिता को भी यहाँ से देने वाले का कैसे स्वीकार हो सकता है ? यह सुनकर 'मुनि को गुस्सा आया है' ऐसा मानकर, सभी ब्राह्मण क्रोधित हुये और हाथ में डण्डा, चाबुक, पत्थर आदि लेकर चारों तरफ से मुनि को मारने दौड़े। यक्ष ने उनमें से कईयों को वहीं कटे वृक्ष के समान गिरा दिया, कई को प्रहार से मार दिया और कई को खून का वमन करवाया। इस प्रकार की अवस्था में सर्व को देखकर भय से काँपने हृदय वाली राजपुत्री ब्राह्मणी कहने लगी कि यह तो वह मूनि है कि जिसके पास उस समय स्वयं विवाह के लिये गई थी, परन्तु इन्होंने मुझे छोड़ दी है, ये तो मुक्तिवधू के रागी हैं, अत: देवांगनाओं की इच्छा भी नहीं करते हैं। अति घोर तप के पराक्रम से इन्होंने सारे तिर्यंच, मनुष्य और देवों को भी वश किया है । तीनों लोक के जीव इनके चरणों में नमस्कार करते हैं। इनके पास विविध लब्धियाँ हैं, क्रोध, मान और माया को जीता है तथा लोभ परीषह को भी जीता है और महासात्त्विक हैं जो सूर्य के समान अति फैले हुए पाप रूपी अन्धकार के समूह को चूरने वाले हैं । और कोपायमान बने अग्नि
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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