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________________ ३८६ श्री संवेग रंगशाला कलह करने से धर्म कला का नाश होता है और इससे शब्द लक्षण (व्याकरण) में विचक्षण पुरुषों ने उसका नाम 'कलं हनन्ति इति कलह: ' कल अर्थात् सुन्दर आरोग्य या सन्तोष का नाश करे उसे कलह कहते हैं । इससे दूसरे की बात तो दूर रही किन्तु अपने शरीर से उत्पन्न हुआ फोड़ के समान अपने अंग से उत्पन्न हुआ कलह प्रिय पुत्र लोक में अति दुस्सह तीक्ष्ण दुःख को प्रगट करता है । शास्त्र में कलह से उत्पन्न हुये जितने दोष कहे हैं उतने ही गुण उसके त्याग से प्रगट होते हैं । इसलिए हे धीर ! कलह को प्रथम रूपी वन को खत्म करने में हाथी के बच्चे समान समझकर परम सुख का जनक और शुभ उसके विजय में हमेशा राग कर तथा अपने और दूसरे को कलह न हो वैसा कार्य कर । फिर भी यदि किसी तरह वह प्रगट हो, तो भी वह बढ़े नहीं इस तरह वर्तन कर । प्रारम्भ में हाथी के बच्चे के समान निश्चय बढ़ते जाते कलह बाद में रोकना दुष्कर बन जाता है, उसके बाद तो विविध वध बन्धन का कारण बनता है । यहाँ कलह पाप स्थानक के दोष से दुष्ट हरिषेण अपने माता-पिता को भी अति उद्वेगकारी बना। और उन दो सर्पों के व्यतिकर को देखकर तत्त्व का ज्ञाता बनकर साधुता को स्वीकार कर देवों का भी पूज्य बन । वह इस प्रकार है - कलह पर हरिषेण की कथा मथुरा नगरी में महाभाग्यशाली शंख नाम का राजा था। उसने सर्व वस्तुओं के राग का त्याग कर सद्गुरू के पास दीक्षा स्वीकार की थी । कालक्रम से सूत्र अर्थ का अभ्यास कर पृथ्वी ऊपर विहार करते वह तीन और चार प्रकार मार्ग से मनोहर गजपुर नगर में आए, और भिक्षा के लिए नगर में प्रवेश करते उसने अग्नि वाले मार्ग के पास खड़े सोमदत्त नामक पुरोहित को पूछा कि - 'क्या मैं मार्ग से जा सकता हूँ ? ' ' इससे अग्नि के मार्ग में जाते जलते हुए इसको मैं देखूंगा ।' ऐसा अशुभ विचार कर उसने कहा कि - हे भगवन्त ! इस मार्ग से पधारो ! और इर्या समिति में उपयोग वाले वह मुनि जाने लगे । फिर झरोखे में बैठकर पुरोहित उस मुनि को धीरे-धीरे जाते देख - कर स्वयं भी उस मार्ग में गया । उस मार्ग को शीतल देखकर विस्मयपूर्वक इस तरह विचार करने लगा कि - धिक्कार हो ! धिक्कार हो ! मैं पापिष्ठ हूँ कि- मैंने ऐसा महापाप का आचरण किया है, अब उस महात्मा के दर्शन करने चाहियें, कि जिसके तप के प्रभाव से अग्नि से व्याप्त मार्ग भी शीघ्र ठण्डे जल के समान शीतल हो गया है । आश्चर्यकारक चारित्र वाले महात्माओं को I
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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