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________________ श्री संवेगरंगशाला ३७५ बोला-हे भरत ! इन निरपराधी लोगों को मारने से क्या लाभ है ? वैर परस्पर हम दोनों का है, अतः हम और आप लडेंगे। भरत ने स्वीकार किया, उसके बाद वे दोनों लड़ने लगे, इसमें बाहुबली ने भरत को सर्व प्रकार से हराया। इससे भरत चक्री विचार करने लगा कि-क्या मैं चक्री नहीं हूँ ? क्योंकि सामान्य मनुष्य के समान में सर्व प्रकार से इसके भुजा बल के द्वारा हार गया हूँ। ऐसा चिता करते भरत के करकमल में चमकते बिजली के समान चंचल और यम के प्रचण्ड दण्ड के समान उसके सामने दुःख से देख सके ऐसा दण्ड रत्न आ गया। तब बाहुबली की, ऐसा देखकर, क्रोधाग्नि बढ़ गई। क्या दण्ड सहित इसको चकनाचूर कर दूं ? इस तरह एक क्षण विचार करके अल्प शुद्ध बुद्धि प्रगट हुई और विचार करने लगा कि-विषय के अनुराग को धिक्कार है कि जिसके कारण जीवात्मा मित्र, स्वजन और बन्धुओं को भी तृण तुल्य भी नहीं गिनते, तथा अकार्य को करने के लिये भी उद्यम करते हैं । इससे विषय वासना में वज्राग्नि लगे। ऐसा चिन्तन करते उसे वैराग्य हआ और उस महात्मा ने स्वयमेव लोच करके दीक्षा स्वीकार की। फिर 'प्रभु के पास गया तो मैं छोटे भाईयों को वन्दन किस तरह करूँगा ?' ऐसा अभिमान दोष के कारण वहीं काउस्सग्ग ध्यान में खड़े रहे और 'केवल ज्ञान होने के बाद वहाँ से जायेंगे।' ऐसी प्रतिज्ञा करके निराहार खड़े रहे । एक साल बाद वे कृश हो गये। एक साल के अन्त में श्री ऋषभ देव ने ब्राह्मी और सुन्दरी दो साध्वियों को भेजा। साध्वियों ने आकर कहा कहा कि-हे भाई ! परम पिता परमात्मा ने फरमाया है कि-'क्या हाथी के ऊपर चढ़ने से कभी भी केवल ज्ञान होता है। इसके पश्चात् जब उसे सम्यग् रूप से विचार करने लगे तब ‘मान यही हाथी है' ऐसा जानकर शुद्ध भाव प्रगट हुए और उस मान को छोड़कर प्रभु के चरणों में जाने के लिये पैर उठाया, उसी समय श्रेष्ठ केवल ज्ञान की प्राप्ति होने से पूर्ण प्रतिज्ञा वाले बने । इस तरह हे महात्मा क्षपक ! मान कषाय की प्रवृत्ति और विरति से होने वाले दोष, गुणों को शुद्ध बुद्धि से विचार करके तू इस आराधना की साधना कर दर्शन ज्ञान सहित श्रेष्ठ चारित्र गुण से युक्त अनन्त शिव सुख को प्राप्त कर । इस तरह मान विषयक सातवाँ पाप स्थानक कहा है, अब माया विषयक आठवाँ पाप स्थानक को कुछ अल्पमात्र कहते हैं। ८. माया पाप स्थानक द्वार :-माया उद्वेग करने वाला है इसकी धर्म शास्त्रों में निन्दा की है, वह पाप की उत्पत्ति रूप है और धर्म का क्षय करने
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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