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________________ श्री संवेगरंगशाला ३७१ कदापि नहीं कर सकता है, कारण कि कार्य करने में दक्ष – निर्मल वह बुद्धि क्रोधी को कहाँ से हो सकती है ? और भी कहा है महापापी क्रोध उद्वेगकारी है, प्रिय बन्धुओं का नाश करने वाला, संताप कारक है और सद्गति को रोकने वाला है । इसलिए विवेकी पुरुषों को कभी भी हजारों पण्डित पुरुषों द्वारा निन्दनीय स्वभाव से ही पापचारी क्रोध के वश नहीं होते हैं । जीव क्रोध से प्राणी को अथवा प्राण का नाश करते हैं । मृषा वचन बोलता है, अदत्त ग्रहण करता है, ब्रह्मचर्य व्रत को भंग करता है, महा आरम्भ और परिग्रह संग्रह करने वाला भी होता है ! अधिक क्या कहें ? क्रोध से सर्व पाप स्थानक सेवन होता है । उसमें निरपक्ष तू क्षमा रूपी तीक्ष्ण तलवार से महा पतिमल्ल क्रोध को चतुराई से खत्म कर उपशम रूपी विजय लक्ष्मी को प्राप्त कर । क्रोध दुःखों का निमित्त रूप है और केवल एक उसका उपशम सुख का हेतुभूत है । ये दोनों भी आत्मा के आधीन हैं, इसलिए उसका उपशम करना ही यही श्रेष्ठ उपाय है । मन से भी क्रोध किया जाए तो नरक का कारण बनता है और मन से उसका उपशम किया हो तो वह मोक्ष के लिए होता है । यहाँ पर दोनों विषय में प्रसन्नचन्द्र राजर्षि दृष्टान्त भूत है, वह इस प्रकार है : प्रसन्नचन्द्र राजर्षि की कथा पोतानपुर का राजा प्रसन्नचन्द्र ने उग्र विषधर सर्पों से भरे घट के समान राज्य को छोड़कर श्री वीर परमात्मा के पास दीक्षा स्वीकार की । फिर जगत गुरू के साथ विहार करते वे राजगृह में आए और वहाँ परिध के समान दो भुजाओं को सम्यग् लम्बे कर काउस्सग्ग ध्यान में खड़े रहे। इसके बाद श्री जैनेश्वर भगवान को वन्दना के लिए श्रेणिक राजा सैन्य सहित जा रहा था । दो अग्रसर दुर्मुख और सुमुख नाम के दो दूतों ने उस महाऋषि को देखा और सुमुख ने कहा कि - यह विजयी है और इसका जीवन सफल है, क्योंकि इसने श्रेष्ठ राज्य को छोड़कर इस प्रकार दीक्षा स्वीकार की है । यह सुनकर दुर्मुख ने कहा कि - भद्र ! इसकी प्रशंसा से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि स्वयं नपुंसक निर्बल पुत्र को राज्य पर बैठाकर, शत्रुओं के भय से पाखण्ड स्वीकार कर वह इस तरह रहता है और राज्य, पुत्र तथा प्रजा भी शत्रुओं से पीड़ित हो रही है । इस तरह सुनकर तत्काल धर्म ध्यान की मर्यादा भूलकर प्रसन्नचन्द्र मुनि कुपित होकर विचार करने लगे कि- मैं जीता हूँ, फिर मेरे पुत्र और राज्य पर कौन उपद्रव करने वाला है ? मैं मानता हूँ कि सीमा के राजाओं की यह दुष्ट
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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