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________________ श्री संवेगरंगशाला ३६३ नहीं की। इससे 'चोरी मत करो, चोरी मत करो।' ऐसा बोलते वृद्धा ने नमस्कार करने के बहाने से श्रावक पुत्र को छोड़कर शेष सब चोरों के चरणों को मोर के पित्त (शरीर जन्य धातु) द्वारा निशान किया। घर के धन को उठाकर चोर निकल गये। फिर उसी समय प्रभात में वृद्धा ने वह वृत्तान्त राजा को कहा। राजा ने नियुक्त किए पुरुषों को आदेश दिया। उन्होंने मोर के पित्त से अंकित पैर वाले पुरुषों की खोज करते सर्व आदरपूर्वक स्वच्छन्दतया पान भोजनादि करते तथा विलास करते उस दुष्ट विलासी मण्डली को देखकर 'यही चोर हैं' ऐसा निश्चय कर वे चोरों को राजा के पास ले गये । वहाँ अनंकित पैर वाले उस एक श्रावक पुत्र को छोड़कर अन्य का छेदन, भेदन आदि अनेक पीड़ाओं द्वारा मरण के शरण कर दिया। इस तरह अदत्तादान की प्रवृत्ति वाले और उसके नियम वाले जीवों का अशुभ तथा शुभ फल को देखकर हे वत्स ! तु इससे रुक जा। इस तरह अदत्त ग्रहण नाम का तीसरा पाप स्थानक कहा है। अब चौथा अनेक विषय वाला है फिर भी अल्पमात्र कहता हूँ। ४. मथुन विरमण द्वार:-मैथुन लम्बे काल में कष्ट से प्राप्त होता है, धन के मूल का नाश करने वाला, दोषों के उत्पत्ति का निश्चित कारण और अपयश का घर है। गुण के प्रकर्ष रूप कण समूह को चूरणे वाला भयंकर ओखली है, सत्यरूपी पृथ्वी को खोदने वाला हल की अग्र धारा है और विवेक रूपी सूर्य की किरणों के विस्तार को ढांकने वाली ओस है। इसमें आसक्त जीव गुरूजनों से पराङ्मुख, आज्ञा का लोप करता है और भाई, बहन तथा पुत्रों से भी विरुद्ध रूप चलता है । वह नहीं करने योग्य कार्य करता है, करने योग्य का भी त्याग करता है, विशिष्ट वार्तालाप करते लज्जित होता है और बाह्य प्रवृत्ति से विरक्त चित्त वाला सदा इस तरह से ध्यान करता है कि-अहो ! अरुण समान लाल, नखों की किरणों से व्याप्त, रमणीय का चरण युगल, प्रभात में सूर्य की किरणों से युक्त, कमल के सदृश शोभायमान होता है । अनुक्रम से गोल मनोहर साथल मणि की कलश नली के समान रमणीय है और दोनों पिंडली कामदेव के हाथी की सूंड की समानता को धारण करती हैं। पाँच प्रकार के प्रकाशमय रत्नों का कंदोरे से यूक्त नितम्ब प्रदेश भी स्फूरायमान इन्द्र धनुष्य से आकाश विभाग शोभता है वैसे शोभता है। मुष्टि ग्राह्य उदर भाग में मनोहर बलों की परम्परा स्तन रूपी पर्वतों के शिखर के ऊपर चढ़ने के लिए पौढ़ी की श्रेणी के समान शोभती है, कोमल और मांस से पुष्ट हथेलियों से शोभित दो भुजा रूपी लताएँ भी ताजे खिले हुए कमल वाले कमल
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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