SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 363
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री संवेगरंगशाला ३४० रोगी दुःख का प्रतिकार करने वाला वैद्य को प्राप्त कर जैसे विनती करता है वैसे निर्यामक को प्राप्त कर और गुरूदेव को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके इस तरह निवेदन कहता है - हे भगवन्त ! बड़ी कठिनता से प्राप्त हो सके ऐसी यह सामग्री मैंने प्राप्त की है, इसलिए मुझे अब काल का विलम्ब करना योग्य नहीं है । कृपा करके मुझे अनशन का दान करो । दीर्घकाल काया की संलेखना करने वाले मुझे अब इस भोजनादि के उपभोग से क्या प्रयोजन है ? इसके बाद उसकी निरीहता ( इच्छा रहित ) को जानने के लिए गुरू महाराज स्वभाव से ही श्रेष्ठ स्वाद वाला, स्वभाव से ही चित्त में प्रसन्नता प्रगट करने वाला, स्वभाव से ही सुगन्ध महकते और स्वभाव से ही उसे इच्छा प्रगट करने वाला आहार आदि श्रेष्ठ पदार्थ उसे दिखाये, इसे दिखाने से जैसे कुरर पक्षी के कुरर शब्द को सुनकर मछली का समूह जल में से बाहर आता है, वैसे उसके हृदय में रहे संकल्प भाव अवश्य प्रगट होते हैं । यदि इस तरह द्रव्य को दिखाए बिना उसे आहार का त्रिविध से त्याग करवा दिया जाए तो बाद में किसी प्रकार के भोजन में उस क्षपक मुनि को उत्सुकता हो सकती है । और अन्नादि से सेवन की हुई आहार की संज्ञा भी कैसी है - पूर्व में जो भुक्त भोगी, गीतार्थ अच्छी तरह से वैरागी और शरीर से स्वस्थ हो, वह भी आहार के रस धर्म में जल्दी क्षोभ होता है । इसलिए विविध आहार के उद्देश्य को नियम कराने वाले उसको प्रथम सारे उत्कृष्ट द्रव्य को दिखाने चाहिए। इस तरह चार कषाय के भय को भगाने वाली संवेगी मन रूपी भ्रमर के लिए खिले हुए पुष्पों के उद्यान समान संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अन्तर द्वार वाला तीसरा ममत्व विच्छेद द्वार में पांचवाँ दर्शन नाम का अन्तर द्वार कहा है । अब क्रमानुसार हानि द्वार की प्ररूपणा द्वारा द्रव्यों को दिखाने के बाद क्षपक मुनि को जो परिणाम प्रगट होता है, उस परिणाम को कहता है । छठा हानि द्वार : - अर्थात् आहार का संक्षेप रूप, गुरू महाराज से भोजन के लिए अनुमति प्राप्त कर अत्यन्त प्रबल सत्त्व वाला क्षपक मुनि के आगे रखा हुआ अशनादि द्रव्यों को देखकर, स्पर्श करके, सूंघकर अथवा उसे ग्रहण करके इच्छा से मुक्त बना, इस प्रकार सम्यग् विचार करे – अनादि इस संसार रूपी अटवी में अनन्तीवार भ्रमण करते मैंने मन वाँछित क्या नहीं भोगा ? किस वस्तु को स्पर्श नहीं किया ? क्या नहीं सूंघा ? अथवा मैंने क्याक्या वस्तु प्राप्त नहीं की ? अर्थात् मैंने हर पदार्थ का भोग, स्पर्श आदि सब कुछ किया, फिर भी यह पापी जीव को अल्पमात्र भी यदि तृप्ति नहीं हुई है, वह तृप्ति क्या अब होगी ? अतः संसार के किनारे पर पहुँचा हुआ मुझे इन द्रव्यों
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy