________________
श्री संवेगरंगशाला
३३७
पालक तीन गुप्ति से गुप्त, अनासक्त अथवा स्वाश्रयी, राग, द्वेष; और मद बिना के योग सिद्ध अथवा कृत क्रिया का सतत् अभ्यासी, समय का जानकार, ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूप समृद्धिशाली, मरण-समाधि की क्रिया और मरणकाल के जानकार, इंगित आकृति से शीघ्र अथवा प्रार्थना-इच्छा करने वाले के स्वभाव को जानने वाला, व्यवहार कार्य करने में कुशल, अनशन रूपी रथ के सारथी अर्थात् क्षपक मुनि के अनशन को निर्विघ्न पूर्ण कराने वाले एवं अस्खलित आदि गुणों से युक्त द्वादशांगी रूप सूत्र के एक समुद्र, सदृश अपना निर्यामणा कराने वाले गुरू को और निर्यामक मुनियों की खोज करे। फिर आगम को प्रकाश करने में दीपक समान उस आचार्य श्री की निश्रा में धीर क्षपक मुनि महा प्रयोजन-मोक्ष के साधन के लिए अनशन को स्वीकार करे।
फिर गुरू महाराज ने दिया हआ अल्प निद्रा वाला, संवेगी, पापभीरू, धैर्य वाला तथा पासस्था, अवसन्न और कुशील अथवा शिथिलाचार के स्थान छोड़ने में उद्यमी, क्षमापूर्वक सहन करने वाला, मार्दव गुण वाला, अशठ, लोलुपतारहित, लब्धिवंत मिथ्या आग्रह से मुक्त चतुर, सुन्दर स्वर वाला, महासत्त्व वाला, सूत्र के अर्थ में एकान्त आग्रह बिना स्याद्वादी, निर्जरा के लक्ष्य वाला, जितेन्द्र, मन से दान्त कुतूहल से रहित, धर्म में दृढ़ प्रीति वाला, उत्साही, अवश्य कार्य में स्थिर दृढ़ मन वाला, उत्सर्ग-अपवाद के उस-उस स्थान में श्रद्धालु और उसके उपदेशक, दूसरे के अभिप्राय के जानकार, विश्वासपात्र, पच्चक्खान में उसके विविध प्रकारों के जानकार, कल्प्य अकल्प्य को जानने में कुशल, समाधि को प्राप्त करने में और आगम रहस्यों के जानकार, अड़तालीस मुनि उसके निर्यामक बने । वह इस प्रकार :
१-उद्वर्तनादि कराना, २-अन्दर के द्वार बैठना, ३-संथारा का प्रतिलेखना आदि करना, ४-क्षपक मुनि को धर्मकथा सुनानी, ५-आगन्तुक वादियों के साथ में वाद करना, ६-मुख्य द्वार पर चौकी करना, ७-आहार ले आना, ८-पानी ले आना, ६-मलोत्सर्ग करवाना, १०-प्रश्रवणश्ले आदि परठना, ११-बाहर के श्रोताओं को धर्म सुनाना, और १२-चारों दिशाओं में सम्भाल रखनी। इन बारह विषयों में प्रत्येक के चार-चार विभाग होते हैं, वह इस प्रकार
१. अत्यन्त कोमल हाथ से चार मुनि क्षपक मुनि के करवट को बदलाएँ, फिर दूसरी करवट बदलाएँ या चलाना आदि शरीर की सेवा करें, उसके बाद शरीर से कमजोर बने तब हाथ आदि का सहारा देकर चलायें और यदि वह