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________________ ३२६ श्री संवेगरंगशाला इससे उसी समय जीवन तक के अपने कूल का काला कलंक का भी विचार किए बिना, लज्जा को भी दूर फेंककर, घर जाकर उसका ही स्मरण करते योगी के समान सर्व प्रवृत्ति को छोड़कर पागल के समान और मूछित के सदृश घर के एक कोने में वह एकान्त में बैठा, उस समय पिता ने पूछा कि-हे वत्स! तू इस तरह अकाल में ही हाथ-पैर से कमजोर, चंपक फल के समान शोभा रहित निराश क्यों दिखता है ? क्या किसी ने तेरे पर क्रोध किया है, रोग से, अथवा क्या किसी ने अपमान किया है या किसी के प्रति राग होने से, हे पुत्र ! तू ऐसा करता है। अतः जो हो वह कहो, जिससे मैं उसकी उचित प्रवृत्ति करूँ। तब दत्त ने कहा कि-पिताजी ! कोई भी सत्य कारण मैं नहीं जानता, केवल अन्तर से पीड़ित होता है, इस तरह अज्ञान का अनुभव करता हूँ। इससे सेठ बहुत व्याकुल हुआ और उसकी शान्ति के लिये अनेक उपाय किए, परन्तु थोड़ा भी लाभ नहीं हुआ। फिर सेठ को पुत्र के मित्रों ने नाटक में नटपुत्री के प्रति राग उत्पन्न हुआ है, वह सारा वृत्तान्त कहा । इससे सेठ विचार करने लगा कि अहो ! दोष को रोकने के लिए समर्थ कुलीनता और सुन्दर विवेक विद्यमान है, फिर भी जीव को कोई ऐसा जोर का उन्माद उत्पन्न होता है कि जिससे वह गुरूजनों को, लोक लज्जा को, धर्म ध्वंस को, कीर्ति को बन्धुजन और दुर्गति में गिरते रूप सर्वनाश को भी नहीं गिनता है । तो अब क्या करूँ ? इस तरह रहता हुआ मूढ़ हृदय वाले इसका कोई भी उपाय नहीं है कि जिससे उभय लोक में विरुद्ध नहीं हो। फिर भी उत्तम कुल में जन्म लेने वाली मनोहर रूप रंग वाली अन्य कन्या को बतलाई कि जिससे किसी भी तरह उसका मन नट की पुत्री से रूक जाए। ऐसा सोचकर अनेक कन्याएँ उसे बतलाईं, परन्तु नट की कन्या में आसक्त हआ उसने उनके सामने देखा ही नहीं। इस कारण से यह पुत्र सुधारने के लिए अयोग्य है, ऐसा मानकर सेठ ने दूसरे उपाय की उपेक्षा की। बाद में निर्लज्ज बनकर वह नटों को धन देकर उस कन्या से विवाह किया। इससे 'अहो ! अकार्य किया है।' ऐसा लोकापवाद सर्वत्र फैल गया और उसे कोई नहीं रोक सका। फिर मनुष्यों के मुख से परस्पर वह बात फैलती हुई सूरतेज मुनि ने सुनी और रागवश अल्प विस्मयपूर्वक मुनि श्री ने कहा कि-निश्चय राग को कोई असाध्य नहीं है, अन्यथा उत्तम कुल में जन्म लेकर भी वह बिचारा इस प्रकार का अकार्य करने में कैसे उद्यम करता? उस समय पर वहाँ वन्दन के
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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