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________________ श्री संवेगरंगशाला ३२१ सरतज राजा का प्रबन्ध विविध आश्चर्यों का निवास स्थान पद्मावती नगरी के अन्दर प्रसिद्ध सूरतेज नाम का राजा था। उसे निष्कपट प्रेम वाली धारणी नाम से रानी थी। उसके साथ में समय के अनुरूप उचित विषय सुख को भोगते तथा राज्य के कार्यों की सार सम्भाल लेते और धर्म कार्य की भी चिन्ता करते राजा के दिन व्यतीत हो रहे थे। एक समय श्रुत समुद्र के पारगामी, जगत प्रसिद्ध एक आचार्य श्री नगर के वाहर उद्यान में पधारे। उनका आगमन सुनकर नगर के श्रेष्ठ मनुष्यों से घिरा हआ हाथी के स्कन्ध पर बैठा हआ, मस्तक पर आभूषण के उज्जवल छत्र वाला, पास में बैठी हुई तरुण स्त्रियों के हाथ से ढुलाते सुन्दर चामर के समूह वाले और आगे चलते बन्दीजन के द्वारा सहर्ष गुण गाते वह राजा श्री अरिहंत धर्म को सुनने के लिये उसी उद्यान में आया एवं आचार्य जी के चरण-कमल में नमस्कार करके अपने योग्य प्रदेश में बैठा। फिर आचार्य श्री ने उसकी योग्यता जानकर जलयुक्त बादल की गर्जना समान गम्भीर वाणी से शुद्ध सद्धर्म का उपदेश देना प्रारम्भ किया। जैसे कि जीवात्मा अत्यधिक काल में अपार संसार समुद्र के अन्दर परिभ्रमण करके महामुसीबत से और कर्म की लघुता होने से मनुष्य जीवन प्राप्त करता है। परन्तु उसे प्राप्त करने पर भी क्षेत्र की हीनता से जीव अधर्मी बन जाता है। किसी समय ऐसा आर्य क्षेत्र मिलने पर भी उत्तम जाति और कुल बिना का भी वह क्या कर सकता है ? उत्तम जाति कुल वाला भी पाँच इन्द्रिय की पटुता, आरोग्यता आदि गुण समूह से रहित, छाया पुरुष (पड़छाया) के समान वह कुछ भी शुभ कार्य करने में समर्थ नहीं हो सकता है । रूप और आरोग्यता प्राप्त करने पर भी पानी के बुलबुले के अल्प आयुष्य वाला वह चिरकाल तक स्थिरता को जीव नहीं प्राप्त कर सकता है । दीर्घ आयुष्य वाला भी बुद्धि के अभाव और धर्म श्रवण की प्राप्ति से रहित, हितकर प्रवृत्ति से विमुख और काम से अत्यन्त पीड़ित कई मूढ़ पुरुष तत्त्व के उपदेशक उत्तम गुरू महाराज को वैरी समान अथवा दुर्जन लोक के समान मानता हुआ दिन रात विषयों में प्रवत्ति करता है और इस तरह प्रवृत्ति करने वाला तथा विविध आपत्तियों से घिरा हुआ अवंतीराज के समान मनुष्य भव को निष्फल गवाकर मुत्यु को प्राप्त करता है। और अन्य उत्तम जीव चतुर बुद्धि द्वारा, विषय जन्य सुख के अनर्थों को जानकर शीघ्र ही नर सुन्दर राजा के समान धर्म में अति आदर वाले बनते हैं । इसे सुनकर विस्मत हृदय वाले सूरतेज राजा ने पूछा कि-हे
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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