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________________ श्री संवेगरंगशाला ३१६ परन्तु जिसको यत्नपूर्वक अच्छी तरह समझाने पर भी स्वीकार नहीं करेगा, ऐसा ज्ञान से जाने उसको वह आचार्य भगवन्त दोषों का स्मरण नहीं कराना चाहिए। क्योंकि-स्मरण करवाने से 'यह मेरे दोष जानते हैं ऐसी लज्जा को प्राप्त करते वह गुण समूह से शोभते उत्तम गच्छ का त्याग करे अथवा गृहस्थ बन जाए या मिथ्यात्व को प्राप्त करे। गुरू प्रथम आलोचक के गुण-दोष को ज्ञान से जानकर फिर आलोचना सुनने की इच्छा, फिर जिस देश काल आदि में आलोचक सम्यग् प्रायश्चित स्वीकार करेगा। ऐसा जानकर उस देश काल में पुनः उसे आलोचना देने की प्रेरणा करे अथवा एकान्त से यदि अयोग्य जाने तो उसका अस्वीकार हो, इस तरह करे कि जिससे अल्प भी अविश्वास न हो। अन्य जो श्रुत व्यवहारी आदि आलोचनाचार्य कहे हैं, वे तो तीन बार आलोचना को दे या सुने और समान विषय में आकार आदि से निष्कपटता को जानकर प्रायश्चित दे। क्योंकि-ज्ञानी गुरूदेवों की आकृति से, इससे और पूर्वापर बाधित शब्दों से प्रायःकर मायावी के स्वरूप को जानते हैं । जो सम्यग् आलोचना नहीं ले, माया करे उसे पुनः शिक्षा दे । फिर भी स्थिर न बने ऋजुभाव से यथार्थ नहीं कहे उसे केवल आलोचना कराने का निषेध करे। ___ यहाँ शिष्य प्रश्न करता है कि--छद्मस्थ की आलोचना नहीं स्वीकार करे और प्रायश्चित भी नहीं देना चाहिए क्योंकि ज्ञान का अभाव होने से दोष लगने का कारण उसका परिणाम और क्रिया किसकी कैसी होगी, वह नहीं जान सकते हैं, और निश्चय नय से उसे जानकारी बिना प्रायश्चित कर्म भी उस दोष के सेवन समान नहीं हो सकता है। इसका उत्तर देते हैं कि-जैसे शास्त्रों में परिश्रम करने वाले, शास्त्र के जानकार और बार-बार औषध को देने वाला अनुभवी वैद्य छद्मस्थ होने पर भी रोग का नाश करते हैं, वैसे यह छद्मस्थ होने पर भी प्रायश्चित शास्त्र के अभ्यासी और बार-बार पूर्व गुरू द्वारा दिया हुआ प्रायश्चित को देखने वाले उसके अनुभवी गुरू महाराज आलोचक के दोषों को दूर कर सकते हैं। इस तरह गुरू को आलोचना जिस तरह देनी चाहिए, उस तरह कहा है । अब संक्षेप में प्रायश्चित द्वार कहते हैं । ६. प्रायश्चित क्या देना?-आलोचना प्रतिक्रमण मिश्र आदि प्रायश्चित दस प्रकार का है। उसमें जो अतिचार जिस प्रायश्चित से शुद्ध हो, वह प्रायश्चित उसके योग्य जानना। कोई अतिचार आलोचना मात्र से शुद्ध होता है, कोई प्रतिकर्मण करने से शुद्ध होता है, और कोई मिश्र से शुद्ध होता है, इस तरह कोई अन्तिम पारांचित से शुद्ध होता है। पुनः ऐसा दोष नहीं लगाने
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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