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________________ श्री संवेगरंगशाला ၃s स्नान भी वह लाभदायक नहीं होता जब तक उसमें प्राणियों की दया नहीं करे । इस तरह हे महायश ! तू अपने शास्त्रार्थ का भी क्यों स्मरण नहीं करता है ? कि जिससे तत्त्व से युक्त होने पर भी जीव दया को नहीं स्वीकार करता है ? इस तरह उपदेश देने पर वह पुरोहित साधु के प्रति दृढ़ द्वेषी बना और अल्प उपशान्त चित्त वाला राजा भद्रिक बना । आचार्य श्री भी भव्य जीवों को श्री जैन कथित धर्म में स्थिर करके वहाँ से निकलकर अन्यत्र विहार करने लगे और नये-नये क्षेत्र, गाँव, नगर आकर आदि में लम्बे काल तक विचरण कर पुनः उसी नगर में उचित प्रदेश में वे विराजमान हुये। फिर वहाँ रहे हुए उस आचार्य का हरिदत्त नाम का साधु अनशन के लिए अपने गच्छ से मुक्त होकर काया की संलेखना करके आचार्य श्री के पास आकर विनयपूर्वक चरणकमल में नमस्कार करके और ललाट प्रदेश में हाथ जोड़कर इस प्रकार विनती करने लगा कि-हे भगवन्त ! कृपा करो, मैंने संलेखना कर लिया, अब मुझे संसार समुद्र को तरने के लिये नाव समान अनशन उच्चारणपूर्वक अनुग्रह करो, उसके बाद जल्दी ही अपने गण-समुदाय को पूछकर करुणा से श्रेष्ठ चित्त वाले गुण शेखर सूरि जी ने उसकी याचना स्वीकार की। फिर आचार्य ने अनशन के विषय में आने वाले विघ्न का विचार किये बिना ही सहसा ही शुभ मुहूर्त में उसे अनशन में लगा दिया। जब इस अनशन की नगर में प्रसिद्धि हई तब भक्ति से तथा देखने की इच्छा से उस क्षपक साधु को वन्दन करने के लिए लोग हमेशा आने लगे। और इस तरफ उस समय उस शिवभद्र राजा का बड़ा पुत्र अचानक रोग के कारण बीमार पड़ा। रोग निवारण करने के लिये उत्तम वैद्यों को बुलाया, चिकित्सा की और विविध मन्त्रादि का उपयोग किया, फिर भी वह रोग शान्त नहीं हुआ। इससे किंकर्तव्य मूढ़ मन वाला और उदास मुख कमल वाला राजा अत्यन्त शोक करने लगा। उस समय मौका देखकर दीर्घकाल से छिद्र देखने में तत्पर एवं धर्म द्वेषी उस पुरोहित ने राजा से कहा किहे देव ! जहाँ साधू बिना कारण आहार का त्याग कर मरते हों वहाँ सुख किस तरह हो सकता है ? ऐसा कहकर अनशन में रहे तपस्वी साधु का सारा वृत्तान्त कहा। उसे सुनकर राजा अत्यन्त क्रोधित हुआ और अपने पुरुषों को बुलाकर आज्ञा दी कि-अरे! तुम इस प्रकार कार्य करो कि जिससे ये सब साधु अपना देश छोड़कर शीघ्र निकल जायें। इससे उन्होंने आचार्य श्री के सामने राजा की आज्ञा सुनाई । तब प्रचण्ड विद्या बल वाले एक साधु ने श्री जैन शासन की
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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