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श्री संवेगरंगशाला
आवश्यक भिक्षा देना, स्थण्डिल भूमि जाना इत्यादि में परस्पर परीक्षा करे, इसके बाद जब वह आराधना करते बार-बार उत्साही हो अथवा आराधना की बार-बार याचना करे, तब स्थानिक आचार्य की भी उसकी इसी तरह परीक्षा करनी चाहिए । आचार्य पूछे कि - हे सुन्दर ! तुमने आत्मा की संलेखना की है ? वह यदि उत्तर में ऐसा कहे कि - हे भगवन्त ! क्या केवल हाड़ और चमड़ी वाले मेरे शरीर को आप नहीं देखते ? जैसे सुना न हो वैसे आचार्य पुन: भी पूछे इससे वह क्षपक साधु रोषपूर्वक कहे कि - आप अति चतुर हो कि जो कहने पर भी और दृष्टि से देखने पर भी विश्वास नहीं करते हैं । इस तरह बोलते यदि अपनी अंगुली को मरोड़कर दिखाये कि - हे भगवन्त ! अच्छी तरह देखो ! इस शरीर में अति अल्पमात्र भी मांस, रुधिर या मज्जा है ? इस तरह होने पर भी हे भगवन्त ! अब मैं कौन-सी संलेखना करूँ ? उसके बाद आचार्य उसे इस तरह कहना - मैं तेरी द्रव्य शरीर की संलेखना नहीं पूछा तूने अपनी अंगुलियाँ क्यों मरोड़ीं ? तेरी कृश काया को मैं दृष्टि से नहीं देखता । मेरी सलाह है कि तुम भाव संलेखना करो इसमें शीघ्रता नहीं करो। सर्वप्रथम इन्द्रिय कषाय और गारव को कृश ( पतले ) करो, हे साधु ! मैं तेरे इस कृश शरीर की प्रशंसा नहीं करता हूँ । स्थानिक नियमक आचार्य ने आराधना के लिए आए हुए को प्रतिबोध करने के लिये यह दो श्लोक कहे हैं । इस तरह परस्पर स्वयं अच्छी तरह परीक्षा करने से उभय पक्षों को भक्त परीक्षा ( अनशन ) समय में थोड़ी भी असमाधि नहीं होती है । परन्तु अति रभसत्व (सहसा ) की हुई धर्म -अर्थ सम्बन्धी प्रयोजन भी विपाक (परिणाम) प्रायः अन्त में निवृत्ति के लिए नहीं होता है । इस प्रकार धर्म रूपी तापस के आश्रम तुल्य और मरण सामने युद्ध में जय पताका की प्राप्ति करने में सफल कारणभूत संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अन्तर द्वार वाला दूसरा गण संक्रम द्वार में परीक्षा नाम का सातवाँ द्वार कहा है । अब उभय पक्ष की परीक्षा करने पर भी जिसके बिना आराधना के अर्थी का कार्य भविष्य में निर्विघ्न (सिद्ध) न हो अतः पडिलेहणा द्वार कहता हूँ ।
आठवाँ पडिलेहणा द्वार : - अथवा प्रतिलेखना द्वार, वह पडिलेहणा इस प्रकार से होता है - निश्चल अप्रमत्त मन वाले उत्साही निर्यामक आचार्य गुरू परम्परा से प्राप्त हुआ इस दिव्य निमित्त द्वारा उपसम्पन्न – आए हुए क्षपक की आराधना में विक्षेप होगा या नहीं होगा, उसकी प्रतिलेखना निश्चय करे । उसमें राज्य और क्षेत्र के अधिपति राजादि को गण को और अपने को देखकर यदि वह विघ्न करने वाला न हो तो क्षपक को स्वीकार करे । इस