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________________ श्री संवेगरंगशाला २८३ (चक्र) वाला, दुःखरूपी पानी वाला और अनादि अनन्त भयंकर संसार समुद्र में अनन्त काल तक दुःखों को भोगता है, ऊँची-नीची विचित्र प्रकार की योनियों में परिभ्रमण करता और अति तीक्ष्ण दुःखरूपी अग्नि से सीझता है । तथा अज्ञानी जीव सशल्य मरण से इस संसार महासमुद्र में चिन्तामणी तुल्य श्रमण धर्म का तथा तप संयम को प्राप्त करके भी उसका नाश करता है । सशल्य मरण से मरकर आदि अन्त रहित अति गाढ़ संसार अटवी में पड़ा हुआ दीर्घकाल तक भ्रमण करता है । शस्त्र, जहर अथवा नाराज हुआ वेताल उलटा उपयोग किया यन्त्र अथवा गुस्से से चढ़ा हुआ क्रोधी सर्प ऐसा नहीं करता, वैसे जो मृत्यु के समय भाव शल्य का उद्धार नहीं करे अर्थात् उसकी आलोचना नहीं करता है तो वह दुर्लभ बोधित्व को और अनन्त संसारी रूप का परिभ्रमण करता है । इसलिए निश्चय ही प्रमाद के वश एक मुहूर्त मात्र भी शल्य युक्त रहना वह असह्य है, इसलिए लज्जा और गारव से मुक्त तू शल्य का उद्धार कर अर्थात् उसकी आलोचना कर । क्योंकि नये-नये जन्म रूपी संसार लता के मूलभूत शल्य को मूल में से उखाड़ने के लिए भय मुक्त बना हुआ धीर पुरुष संसार समुद्र को पार कर जाता है । यदि निर्यामक आचार्य भी इसी तरह आराधक साधु को अनर्थों की जानकारी नहीं दे तो शल्य वाले उस आराधक को भी आराधना करने से क्या फल मिलेगा ? इस कारण से आराधक को हमेशा अपाय दर्शक की निश्रा में आत्मा को रखना चाहिए । क्योंकि वहाँ निश्चय आराधना होती है । ८. अपरिश्रावी :- लोहे के पात्र में रखा हुआ पानी बाहर नहीं जाता है वैसे प्रगट हुये अतिचार जिसके मुख से बाहर नहीं निकलते उसे ज्ञानी पुरुषों परिश्राव कहा है । जो गुप्त बात को जाहिर करता है वह आचार्य उस साधु का या अपना, गच्छ का, शासन का, धर्म और आराधना का त्याग किया जानना । आलोचक ने कहे हुये दोष अन्य को कहने से कोई लज्जा से और गारव (मान) द्वारा विपरीत परिणाम वाला अधर्मी बन जाये, कोई भाग जाए या कोई मिथ्यात्व को प्राप्त करता है । रहस्य को प्रगट करने से द्वेषी बना हुआ कोई उस आचार्य को मार दे, आत्मा का भेदन - अपघात करता है और गच्छ समुदाय में भेदन (झगड़ा) करता है अथवा प्रवचन का उपहास करता है इत्यादि दोष रहस्य को धारण करने वाले आचार्य नहीं होते हैं । इस कारण से अपरिश्रावी निर्यामक आचार्य की खोज करनी चाहिए । इस तरह आठ गुण वाले आचार्य की चरण कृपा से आराधक प्रमाद शत्रु को खत्म कर आराधना की सम्पूर्ण साधना करे । इस तरह पाप रूपी कमल को
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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