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________________ २६० श्री संवेग रंगशाला हुई समाधि की पुन: साधना करे और असंवर अर्थात् सावध पापकारी भाषा को बोलते हुए भी रोके । इस तरह श्री जैन वचन श्रवण के प्रभाव से पुनः प्रशम गुण को प्राप्त करता है । इससे मोहरूपी अन्धकार नष्ट हो जाने से हर्ष शोक रहित बनता है । राग-द्वेष से मुक्त बनकर वह सुखपूर्वक ध्यान करता है और उस ध्यान द्वारा मोह सुभट को जीतकर तथा मत्सर सहित राग रूपी राजा का भी पराभव करके वह अनन्त ज्ञान, दर्शन, चारित्र और वीर्य रूपी चतुरंग प्रभाव से वह निर्वाण रूपी राज्य के सुख को प्राप्त करता है । इस तरह गीतार्थ के चरण-कमल में ऊपर कहे वे अनेक गुणों की प्राप्ति होती है । निश्चय से संकलेश न हो और असाधारण श्रेष्ठ समाधि प्रगट हो ऐसे मेरे आधारभूत गुरूदेव की निश्रा होनी चाहिये । ३. व्यवहारवान :- जो पाँच प्रकार के व्यवहारों के तत्त्व से विस्तारपूर्वक ज्ञाता हो और दूसरे द्वारा दिये जाते प्रायश्चित को अनेक बार देखकर, प्रायश्चित देने का अनुभवी हो, उसे व्यवहारवान् जानना । आज्ञा, श्रुत, आगम, धारणा और जीत ये पाँच प्रकार का व्यवहार है, उसकी विस्तारपूर्वक प्ररूपणा शास्त्रों में कहा है । प्रायश्चित के लिये आये हुये पुरुष को उसके पर्याय या वय, संघयण, प्रायश्चित करने वाले के उसके परिणाम, उत्साह को देखकर और द्रव्य, क्षेत्रकाल तथा भाव को जानकर व्यवहार करने में कुशल, श्री जैन वचन में विशारद् - पण्डितवर्य धीर हो वह व्यवहारवान राग-द्वेष को छोड़कर उसे व्यवहार में प्रस्थापित करे अर्थात् प्रायश्चित दे । व्यवहार का अज्ञानी - अनाधिकारी होने पर व्यवहार योग्य का व्यवहार करे, अर्थात् आलोचक को प्रायश्चित देता है वह संसार रूपी कीचड़ में फँसता है और अशुभ कर्मों का बन्धन करता है । जैसे औषध को नहीं जानने वाला वैद्य रोगी को निरोगी नहीं करे, वैसे व्यवहार को नहीं जानने वाले, शुद्धि को चाहने वाले आलोचक की शुद्धि नहीं करे । इस कारण से व्यवहार के ज्ञाता की निश्रा में रहना चाहिये, वहीं पर ही ज्ञान चारित्र समाधि और बोधिबीज की प्राप्ति होती है । ४. ओवीलग-अपनीडक : - अर्थात् लज्जा दूर करने वाला पराक्रमी, तेजस्वी, बोलने में चतुर, विस्तृत कीर्ति वाला और सिंह के समान निर्भय या रक्षक आचार्य को श्री जैनेश्वर भगवान ने आलोचक की शरम को छोड़कर शुद्ध आलोचना देने वाला कहा है । किसी क्षपक - तपस्वी को परहित करने में तत्पर मन वाला वह आचार्य स्नेहपूर्वक, मधुर, मन की प्रसन्नता कराने
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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