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________________ श्री संवेगरंगशाला २८७ से अपने गच्छ को पूछकर बढ़ते परिणाम से आराधना के लिए परगण में प्रवेश करे, क्योंकि अपने गच्छ में रहने से-१-आज्ञा कोष, २-कठोर वचन, ३-कलह करण, ४-परिताप, ५-निर्भयता, ६-स्नेह राग, ७-करुणा, ८-ध्यान में विघ्न, और ई-असमाधि होती है। जैसे कि अपने गच्छ में उहाहकारी स्थविर, कलह करने वाले छोटे साधुओं और कठोर नये दीक्षित यदि आचार्य की आज्ञा का लोप करे, अनादर करे, तो इससे असमाधि होती है। परगच्छ में रहे आचार्य का तो उन साधुओं के प्रति व्यापार (अधिकार) कम नहीं होता है, इसलिए आज्ञा लोप करे तो भी असमाधि किस तरह हो सकती है ? वहाँ असमाधि नहीं रहती है। किसी क्षुल्लक साधु को, स्थविर को और नये साधुओं को असंयम में प्रवृत्ति करते देखकर वह आचार्य कठोर वचन भी कहे और बार-बार ऐसी प्रेरणा करने पर सहन नहीं करने से उनके साथ कलह भी हो जाता है, इससे आचार्य को और उन साधुओं को सन्ताप आदि दोष भी लगता है, तथा अपने गण समुदाय में रहने पर आचार्य को शिष्यादि के प्रति ममत्व दोष के कारण असमाधि होती है। एवम् अपने गच्छ में रोग आदि से साधुओं को जो पीड़ा आदि को प्राप्त करते तो इससे आचार्य को दुःख, स्नेह अथवा असमाधि होती है । अति दुःसह तृष्णा या क्षुधादि होने से अपने गच्छ में विश्वास प्राप्त करने वाला वह आचार्य निर्भय होकर कुछ अकल्पनीय वस्तु की याचना करे अथवा उसका उपयोग करे। आत्यन्तिक वियोग-मरण के समय पर अनाथ साध्वियों को, वृद्ध मुनियों को और अपनी गोद में उछलते बाल साधुओं को देखकर आचार्य को उनके प्रति स्नेह उत्पन्न हो, तथा क्षुल्लक साधु अथवा क्षुल्लक साध्वियाँ निश्चय से करुणाजनक वचनादि यदि बोलें, रो तो आचार्य कोवें ध्यान में विघ्न अथवा असमाधि होती है । शिष्य वर्ग आहार पानी अथवा सेवा सुश्रुषा में यदि प्रमाद करे तो आचार्य को समाधि होती है। अपने गण में रहने से नूतन आचार्य को और अनशन स्वीकार करने वाले को अप्रशम से अधिकतः ये दोष लगते हैं, इस कारण से वह परगण में जाता है। परगण के साधु विद्वान हैं और भक्ति वाले भी हैं, परन्तु अपने गच्छ को छोड़कर, ये महात्मा हमारी आशा लेकर यहाँ पधारे हैं । ऐसा विचार करके भी परम आदरपूर्वक सर्वस्व शक्ति को छुपाये बिना उत्कृष्ट भक्तिपूर्वक उनकी सेवा में दृढ़तापूर्वक वर्तन करे और गीतार्थ एवं चारित्र शील आचार्य भी अपने समुदाय को पूछकर आए हुए उस आगन्तुक का सर्वथा आदरपूर्वक निर्यामक बने और संविज्ञ, पापभीरू तथा श्री जैन वचन के सर्व सार को प्राप्त करने वाले उस
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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