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________________ २८२ श्री संवेगरंगशाला जाता है। क्योंकि उसका आश्रय करने वाले को ज्ञान, दर्शन, चारित्र की वृद्धि होती है। यहाँ पर संयम में कुशील ने पूजा करने से संयमी किया हुआ अपमान भी श्रेष्ठ है, क्योंकि प्रथम कुशील द्वारा शील का नाश होता है और संयत द्वारा शील का नाश नहीं होता है। जैसे मेघ के बादल से व्यंतर (एक जाति के सर्प) का उपशम हुआ विष कुपित होता है, वैसे कुशल पुरुषों ने उपशम किया हुआ भी मुनियों का प्रमाद रूपी विष कुशील संसर्ग रूपी मेघ बादल से पुनः भी कुपित होता है। इस कारण से धर्म में प्रीति और दृढ़ता वाले पाप भीरूओं के साथ संगति करनी चाहिए। क्योंकि अनेक प्रभाव से धर्म में मन्द आदर वाला भी उद्यमशील बनता है। कहा है कि-नये धर्म प्राप्त करने वाले की बुद्धि प्रायःकर धर्म में आदर नहीं करता, परन्तु जैसे वृद्ध बैल के साथ जोड़ा हुआ नया बैल अव्याकुलता जुआ का वहन करता है, वैसे ही नया धर्मी भी वृद्धों की संगति से धर्म में रागी-स्थिर हो जाता है। शील गुण से महान पुरुषों के साथ में जो संसर्ग करता है, चतुर पुरुषों के साथ बात करता है और निर्लोभी-निःस्वार्थ बुद्धि वालों के साथ प्रीति करता है वह आत्मा अपना हित करता है। इस तरह संगति के कारण पुरुष दोष और गुण को प्राप्त करता है। इसलिए प्रशस्त गुण वाले का आश्रय लेना चाहिए । प्रशस्त भाव वाले तुम परस्पर कान को कड़वा परन्तु हितकर बोलना, क्योंकि कटु औषध के समान निश्चय परिणाम से वह सुन्दर-हितकर होगा। अपने गच्छ में अथवा परगच्छ में किसी की पर-निन्दा नहीं करना, और सदा पूज्यों की आशातना से मुक्त और पापभीरू बनना । एवम् आत्मा को सर्वथा प्रयत्नपूर्वक इस तरह संस्कारी करना कि जिस तरह गुण से उत्पन्न हुई तुम्हारी कीर्ति सर्वत्र फैल जाए । 'यह साधु निर्मल शील वाले हैं, ये बहुत ज्ञानवान् हैं, न्यायी हैं, किसी को संताप नहीं करते हैं, क्रिया गुण में सम्यक् स्थिर हैं।' ऐसी उद्घोषणा धन्य पुरुषों की फैलती है । "मैंने मार्ग के अन्जान को मार्ग दिखाने में रक्त, चक्षु रहित को चक्ष देने के समान, कर्मरूपी व्याधि से अति पीड़ित को वैद्य के समान, असहाय को सहायक और संसार रूपी कुएँ में गिरते हुए को बाहर निकालने के लिए हाथ का आलम्बन देने वाले गुणों से महान् गुरू तुमको दिया है और अब मैं गच्छ की देख-भाल सर्व प्रकार से मुक्त होता हूँ। इस आचार्य के श्रेष्ठ आश्रम को छोड़कर तुम्हें कदापि कहीं पर भी जाना योग्य नहीं है, फिर भी आज्ञा पालन में रक्त तुम्हें इनकी आज्ञा से यदि किसी समय पर कहीं गये हो परन्तु पुण्य की खान इस गुरू को हृदय से नहीं छोड़ना।
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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