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________________ श्री संवेगरंगशाला २७७ शील रहित होती हैं, किन्तु इस संसार में मोह के वश पड़े हये सर्व जीव भी दुःशील हैं। इतना भेद है कि वह मोह प्रायःकर स्त्रियों को उत्कंट होता है। इस कारण के उपदेश देने की अपेक्षा से इस तरह स्त्रियों से होने वाले दोषों का वर्णन किया जाता है और उसका चिन्तन करते पुरुष विषयों में विरागी बनता है । वे पूण्यशाली हैं कि जो स्त्रियों के हृदय में बसते हैं और उन देवों को भी वन्दनीय हैं कि जिनके हृदय में स्त्रियाँ नहीं बसती हैं। ऐसा चिन्तन कर भाव से आत्मा के हित को चाहने वाले जीवों को इस विषय में अत्यन्त अप्रमत्त रहना चाहिए । इत्यादि क्रम से शिष्यों को हित शिक्षा देकर, अब वह आचार्य शास्त्र नीति से प्रवर्तिनी को भी हित शिक्षा देते हैं। प्रवर्तिनी को अनुशास्ति :-यद्यपि तुम सर्व विषय में भी कुशल हो फिर भी हमें हित-शिक्षा देने का अधिकार है, इसलिये हे महायश वाली ! तुमको हितकर कुछ कहता हूँ। समस्त गुणों की सिद्धि करने में अति महान यह प्रवर्तिनी पदवी तुमने प्राप्त की है, इसलिए इसके द्वारा उत्तरोत्तर गुणों की वृद्धि के लिये प्रयत्न करना चाहिए। तथा सूत्र, अर्थ और तदुभय रूप ज्ञान में तथा शास्त्रोक्त कार्यों में शक्ति अतिरिक्त भी तुम्हें निश्चय उद्यम करना। पाप से भी किये हुये शुभ कार्यों की प्रवृत्ति प्रायःकर सुन्दर फल वाली होती है, तो भी संवेगपूर्वक की हई शभ प्रवृत्ति को लाभ का कहना ही क्या ? इसलिए संवेग में प्रयत्न करना चाहिये। क्योंकि दीर्घकाल भी तपस्या की हो, चारित्र पालन किया हो और श्रतज्ञान का अध्ययन किया हो, परन्तु संवेग के रंग बिना निष्फल है, इसलिए उसका ही उपदेश देता हूँ। तथा इन साध्वियों को सम्यग् ज्ञानादि गुणों की प्रवृत्ति कराने से निश्चय जैसे तुम सच्ची प्रवर्तिनी बने हो वैसे प्रयत्न क ना। सौभाग्य, नाट्य, रूप आदि विविध विज्ञान के राग से तन्मय बनी लोक की दृष्टि जैसे रंग मण्डप में नाचती नटी के ऊपर स्थिर होती है. वैसे हे भद्रे ! सम्यग् ज्ञान आदि अनेक प्रकार के तुम्हारे सद्धर्म रूपी गुणों के अनुराग से रागी बनी हुई विविध देश में उत्पन्न हुई, विशाल कुल में जन्मी हुई और पिता-माता को भी छोड़कर आई हुई साध्वियाँ भी तुम्हें प्राप्त हुई, प्रवर्तिनी पद से रमणीय बनी, तुम्हारे आश्रय करके रही हैं। इसलिए वे नटी समान निश्चय विनय वाली-मधुर स्नेह वाली है, अपनी दृष्टि से प्रेक्षकों को देखती और कहे हुये वह सौभाग्यादि, विज्ञानादि गुणों को प्रगट करती प्रेक्षकों की दृष्टियों को प्रसन्न करती है, वैसे तुम भी स्नेह-मधुर दृष्टि की कृपा से ज्ञानादि धर्म गुणों के दान से नित्य इन आचार्यों को अच्छी तरह प्रसन्न करना । जैसे अपने गुणों से ही पूज्य, उज्जवल विकास वाली और शुक्ल पक्ष
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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