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________________ श्री संवेगरंगशाला २५५ भण्डार रूप उनको नमस्कार करें। उसने वह स्वीकार किया। दोनों जन आचार्य भगवन्त के पास गये और विनयपूर्वक उनको नमस्कार कर नजदीक में जमीन पर बैठे। आचार्य श्री ने भी दिव्य ज्ञान के उपयोग से जानने योग्य सर्व जानकर आक्षेपणी-विक्षेपणी स्वरूप धर्म कथा कहने लगे। फिर समय देखकर गंगदत्त ने आचार्य श्री से पूछा कि-भगवन्त मैंने पूर्व जन्म में दुर्भाग्यजनक कौन सा कर्म किया है कि जिससे इस भव में मैं स्त्रियों का अतिद्वेषी बना हूं? उसके ऐसा प्रश्न पूछने पर आचार्य देव ने कहा कि तुम अपना पूर्व भव सुनो : पूर्व में शतद्वार नगर में श्री शेखर राजा की तू अति प्रिय काम में अति आसक्त रानी थी। उस राजा के अतिशय रूप लावण्य से मनोहर अंग वाली पूर्ण पाँच सौ रानियां थीं। राजा के साथ निविघ्न यथेच्छ भोग की इच्छा होने से उन रानियों पर द्वेष करती थी और अनेक फूट, मन्त्र, तन्त्रों से उन पाँच सौ को मार दिया। इससे वज समान अति दारूण अनेक पाप समूह को तथा उस निमित्त से अत्यन्त कठिन दुर्भाग्य नाम कर्म को उपार्जन किया। फिर अन्तकाल तक अति दुःसह श्वास आदि अनेक प्रबल रोगों से मरकर नरक तिर्यंच गतियों में अनेक बार दुःखों को भोगकर एवम् फिर महा मुसीबत से कर्म की लघुता होने से यहाँ मनुष्य भव प्राप्त किया है और पूर्व में किए हुए पापकर्म के दोष से वर्तमान में तू दुर्भाग्य का अनुभव कर रहा है । यह सुनकर धर्म श्रद्धावान् बना, संसार से उद्वेग प्राप्त किया और पिता को पूछकर दीक्षा स्वीकार की। गुरुकुल वास में रहकर सूत्र अर्थ के चिन्तन में उद्यमशील बना और वायु के समान प्रतिबन्ध रहित वह गाँव, नगरादि में विचरने लगा। कुछ काल तक निरतिचार संयम की आराधना कर, फिर भक्त परिक्षा रूप चार आहार त्याग द्वारा वह अनशन करने में उद्यत बना । तब स्थविरों ने कहा कि अहो महाभाग ! पुष्ट रुधिर-मांस वाले तुझे इस समय यह अनशन करना अनुचित है। अतः चार वर्ष विचित्र तप, चार वर्ष विगइयों का त्याग इत्यादि क्रम से संलेखना को करनी चाहिए। द्रव्य, भाव की संलेखना करके फिर इच्छित प्रयोजन आचरण करना, अन्यथा विस्त्रोतसिका दुर्ध्यानादि भी होता है क्योंकि ज्ञानियों ने इस अनशन को बहुत विघ्न वाला कहा है । इस तरह उसे बहुत समझाया, तो भी उनकी वाणी का अपमान करके और स्वच्छन्दी रूप में उसने अनशन स्वीकार किया और पर्वत की शिला पर बैठा। फिर उस ध्यान में रहे दुष्ट योगों का निरोध करते और अनशन में रहे भी उसे ही क्या हुआ वह अब सुनो :
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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