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________________ श्री संवेगरंगशाला उनोदरिका : - इसके भी दो भेद हैं- - द्रव्य और भाव । उसमें द्रव्य उनोदरिका उपकरण और आहार पानी में होता है । वह जैन कल्पी आदि को अथवा जैन कल्प के अभ्यास करने वाले को होता है । संयम का अभाव हो, इसलिए उपकरण उणोदरित दूसरे को नहीं अथवा अधिक उपकरणादि का त्याग करने रूप, वह स्थविर कल्पी जैन कल्पी आदि सर्व को भी होता है । क्योंकि कहा भी है कि - जो संयम में उपकार करता है वह निश्चय से उपकरण जानना । और जो अयतना वाला, अयतना से अधिक धारण करे वह अधिकरण जानना । पुरुष का निश्चय आहार बत्तीस कौर का माना जाता है और स्त्रियों की वे अट्ठाईस कौर माने गये हैं । इस कौर का प्रमाण मुर्गी के अण्डे समान, अथवा मुख में विकृत किए बिना स्वस्थ से मुख में डाल सके उतना ही जानना । इस तरह कौर की मर्यादा बाँधकर श्री जैनेश्वर और श्री गणधरों ने आहार आदि का उणोदरिका - अर्थात् जिसमें उदर के लिये पर्याप्त आहार से कम किया जाये, यानि उदय ऊन: = कम रखा जाये । वह उणोदरिक कहलाता है । वह अल्पहार आदि पाँच प्रकार के कहे हैं । आठ कौर का आहार करना वह प्रथम अल्पाहार ऊनोदरी है, बारह कौर लिए जायें वह दूसरा उपार्ध ऊनोदरी है, सौलह कौर लिए जायें तो वह तीसरा द्विभाग ऊनोदरी है, चौबीस कौर तक लेने से चौथा प्राप्ति ऊनोदरी है और इकत्तीस कौर तक ग्रहण करे वह पांचवाँ किचिद्रण ऊनोदरी जानना । अथवा अपने प्रमाण अनुसार आहार में एक-एक कौर आदि काम करते हुए आखिर में एक कौर तक आना और उसमें में आधा कौर, कम करते-करते आखिर में एक दाना ही लेना, यह सब द्रव्य ऊनोदरी है । श्री जैन वाणी के चिन्तन द्वारा हमेशा क्रोधादि कषायों का त्याग करना उसे श्री वीतराग देवों ने भाव ऊनोदरी कहा है । अब वृत्ति संक्षेप कहते हैं । वृत्ति संक्षेप :- जिससे जीवन टिक सके उसे वृत्ति कहते हैं । उस वृत्ति का संक्षेप करके गौचरी (आहार) लेने के समय दत्ति-परिमाण करना अथवा एक, दो, तीन आदि घर का अभिग्रह (नियम) करना, पिंडेसणा और पाणेषणा के प्रमाण का नियम करना, अथवा प्रतिदिन विविध अभिग्रह स्वीकार करना, उसे वृत्ति संक्षेप जानना । वह अभिग्रह पुनः द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव संबंधी होता है । उसमें आज मैं लेप वाली अथवा लेप बिना का अमुक द्रव्य ग्रहण करूंगा या अमुक द्रव्य द्वारा ही ग्रहण करूँगा । इस प्रकार मन में अभिग्रह करना वह द्रव्य अभिग्रह जानना । तथा शास्त्रोक्त गोचरी भूमि के आठ द्वार कहे हैं, उसमें से केवल देहली के बाहर या अन्दर अथवा अपने गाँव या परगाँव से । २४८
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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