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________________ श्री संवेगरंगशाला २३८ इस तरह आसुरी भावना के पाँच भेद कहे । अब स्वयं को पर को भी मोह उत्पन्न करने वाला संमोह भावना कहते हैं । ५. संमोह भावना :- इसके भी पाँच भेद हैं - ( १ ) उन्मार्ग देशना, (२) मार्ग दूषण, (३) उन्मार्ग का स्वीकार, (४) मोह मूढ़ता, और (५) दूसरे को महामूढ़ बनाना । उसमें ( १ ) उन्मार्ग देशना - मोक्ष मार्ग रूप सम्यग् ज्ञान आदि के दोष बताकर, उसमें विपरीत मिथ्या मोक्ष मार्ग के देने वाले को जानना । मोक्ष का मार्गभूत, ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि के तथा उसमें स्थिर रहे श्रद्धावान् मनुष्यों के दोष कहने वाला दोष का मूलभूत (२) मार्ग दूषण भावना होती है । अपने स्वच्छ वितर्कों द्वारा मोक्ष मार्ग को दोषित मानकर उन्मार्ग के अनुसार चलने वाले जीव को (३) मार्ग विप्रतिपत्ति भावना जानना । अन्य मिथ्या ज्ञान में, अन्य के मिथ्या चारित्र में तथा परतीर्थ वालों की संपत्ति को देखकर मुरझा जाना वह ( ४ ) मोह मूढ़ता भावना कहलाती है जैसे कि सरजरक, गैरिक, रक्टपट आदि के धर्म को मैं सच्चा मानता हूँ कि जिसका लोग ऐसा महान पूजा सत्कार हुआ है । और सद्भावना से कपट से भी लोगों को किसी भी प्रयत्न द्वारा अन्य कुमत में जो आदर मोह प्राप्त करवाना वह मोह जनन भावना कहलाती है । चारित्र की मलिनता में हेतुभूत और अत्यन्त कठोर दुर्गति को देने वाली ये पाँच अप्रशस्त भावनाओं का अल्पमात्र वर्णन किया है । संयत चारित्रवान् यदि साधु किसी प्रकार इन अप्रशस्त भावनाओं में प्रवृत्ति करता है, वह उसी प्रकार की देवयोनि में उत्पन्न होता है | चारित्र रहित को तो हल्की देव योनि मिलती है, ऐसा जानें। इन भावनाओं द्वारा अपने को उसमें वासित करता जीव द्रुष्ट देव की गति में जाता है और वहाँ से आयुष्य पूर्ण करके अनन्त संसार समुद्र के परिभ्रमण करता है । इसलिये इन भावनाओं को दूर से त्याग करके सर्व संग में राग रहित महामुनिराज सम्यग् सुप्रशस्त भावनाओं के वासित बनना चाहिए । अब प्रशस्त भावनाओं का वर्णन करते हैं । प्रशस्त भावना :- इसके पाँच भेद हैं - ( १ ) तप भावना, (२) श्रुत भावना, (३) सत्त्व भावना, (४) एकत्व भावना, और (५) धीरज बल भावना । उसमें (१) तप भावना- - तप भावना से दमन की हुई पाँचों इन्द्रियाँ जिसकी वश हुई हों, उन इन्द्रियों को वश करने में अभ्यासी आचार्य उन इन्द्रियों को समाधि में साधन बनाता है । मुनिजन के निन्दित इन्द्रियों के सुख में आसक्त और परीषहों से पराभव प्राप्त करने वाला, जिसने वैसा अभ्यास नहीं किया, वह नपुंसक व्यक्ति आराधना काल में व्याकुल बनता है । जैसे चिरकाल सुख
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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