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________________ श्री संवेगरंगशाला २३५ पूर्वक विशिष्ट सूत्र का स्मरण करने लगे। फिर जब उस महात्मा ने शरदचन्द्र के सतत् फैलती प्रभा के समान शोभती उज्जवल एवम् अमृत की नीक का अनुकरण करती शीतल अक्षरों की पंक्ति को उच्चारण की, तब सूर्य के तेज समूह से अन्धकार जैसे नाश होता है वैसे उसका महासर्प का जहर नाश हुआ और वह सोया हुआ जागता है, वैसे स्वस्थ शरीर वाला उठा। उसके बाद 'जीवनदाता और उत्तम साधु है' ऐसा राग प्रगट हुआ और अति मानपूर्वक वह चारण मुनि को नमस्कार करके कहने लगा कि-हे भगवन्त ! मैं मानता हूँ कि भ्रमण करते भयंकर शिकारी प्राणियों से भरी हुई इस अटवी में आपका निवास मेरे पुण्य से हुआ है। अन्यथा हे नाथ ! यदि आप यहाँ नहीं होते, तो महा विषधर सर्प के जहर से बेहोश हुआ मेरा जीवन किस तरह होता ? कहाँ मरुदेश और कहाँ फलों से समृद्धशाली महान कल्पवृक्ष ? अथवा कहाँ निर्धन का घर और कहाँ उसमें रत्नों की निधि ? इसी तरह अति दुःख से पीड़ित मैं कहाँ ? और अत्यन्त प्रभावशाली आप कहाँ ? अहो ! विधि के विलासों के रहस्य को इस जगत में कौन जान सकता है ? हे भगवन्त ! ऐसे उपकारी आपको क्या दे सकता हूँ अथवा क्या करने से निर्भागी मैं ऋण मुक्त हो सकता है। मुनि ने कहा कि हे भद्र ! यदि ऋण मुक्त होने की इच्छा है तो तू अब निष्पाप प्रवज्या (दीक्षा) को स्वीकार कर। मैंने तेरे ऊपर उपकार भी निश्चय इस प्रवज्या के लिए किया है। अन्यथा अविरति की चिन्ता करने का उत्तम मुनियों को अधिकार नहीं है । और हे भद्र ! मनुष्यों का धर्म रहित जीवन प्रशंसनीय नहीं है। इसलिए घर का राग छोड़कर, रागरहित उत्तम साधू बन । उसके बाद भाल प्रदेश हस्त कमल की अंजली जोड़कर उसने कहा कि-हे भगवन्त ! ऐसा ही करूँगा, केवल छोटे भाई का राग मेरे मन को पीड़ित करता है, यदि किसी तरह उसके दर्शन हों तो शल्य रहित और एकचित्त वाला मैं प्रवज्या स्वीकार करूं। मुनि ने कहा कि-हे भद्र ! यदि तू जहर के कारण मर गया होता तो किस तरह छोटे भाई को देखने के योग्य होता ? अतः यह निरर्थक राग को छोड़ दो और निष्पाप धर्म का आचरण कर, क्योंकि-जीवों को यह धर्म ही एक बन्धु भ्राता और पिता तुल्य है। मुनि के ऐसा कहने से स्वयंभूदत्त ने श्रेष्ठ विनयपूर्वक प्रवज्या को स्वीकार की, और विविध तपस्या करने लगा। दुःसह परीषह की सेना को सहन करते, महासात्त्विक उस गुरू के साथ में गाँव, नगर आदि से युक्त धरती ऊपर विचरने लगा। इस तरह ज्ञान, दर्शनादि गुणों से युक्त उसने दीर्घकाल गुरू के
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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