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________________ श्री संवेगरंगशाला २२३ इस तरह पाँच प्रकार का बतलाया है। (१) पण्डित-पण्डित मरण, (२) पण्डित मरण, (३) बा - पण्डित मरण, (४) बाल मरण, और (५) बाल-बाल मरण । इसमें प्रथम जैनेश्वर भगवन्त को होता है, दूसरा सर्व विरति साधुओं को, तोसरा देश विरति श्रावक को, चौथा सम्यग् दृष्टियों को, और पाँचवाँ मिथ्या दृष्टियों को होता है। अन्य आचार्यों का जो यह पाँच मरण रूप ज्ञेय पदार्थ है, उसका विभाग इस प्रकार बतलाया है। जैसे कि-केवली भगवन्त को मरते पण्डित-पण्डित मरण होता है। भक्त परिक्षादि तीन पण्डित मरण मुनिवर्य को होता है, देश विरति और अविरति समकित दृष्टियों को बाल पण्डित मरण होता है, जो उपशम वाले मिथ्या दृष्टियों को बामरण होता है, और कषाय से कलुषित जो दृढ़ अभि पहिक मिथ्यात्व सहित मरते हैं, उनका सर्व जघन्य बाल मरण होता है अथवा पाँच के प्रथम तीन पण्डित मरण और अन्तिम दो बाल मरण जानना। उसमें प्रथम तीन समकित दृष्टि और अन्तिम दो को मिथ्या दृष्टि जानना । इसमें प्रथम तीन मृत्यु से मरने वाले मुनियों को अप्रमत्त, स्वाश्रयी, एकाकी विहार-अनशन का विधि क्रमशः उत्तम, मध्यम, और जघन्य जानना। यद्यपि सम्यक्त्व में पक्षपाती मन वाला जीव मरते समय असंयमी होता है तो भी श्री जैन वचन के अनुसार आचरण करने से वे अल्प संसारी हैं। जो श्री जैनाज्ञा में श्रद्धा वाला, प्रतीति वाला और रुचि वाला होता है वह सम्यक्त्व के अनुसार आचरण करने से निश्चित आराधक होता है। श्री जैनेश्वरों के कथित इस प्रवचन में श्रद्धा को नहीं करने वाले अनेक जीवों ने भूतकाल में अनन्ता बान मरण किये हैं, फिर भी ज्ञान रहित-विवेक शन्य उन विचारे जीवों के उस अनन्ता मरण से भी गुणों को कुछ अल्पमात्र भी प्राप्त नहीं किया । इसलिए बाल मरण के वर्णन के विस्तार को छोड़कर केवल उसके विपाक को संक्षेप से मैं कहता हूँ, उसे तुम कान खोलकर सुनो। __अनेक जात की विकार वाली अथवा विस्तार वाली संसार रूपी भयंकर दुर्गम अटवी में दुःख से पीड़ित जीव बाल मरणों के द्वारा मरने से निश्चय ही दीर्घकाल तक परिभ्रमण किया है, करते हैं और करेगे। जैसे कि-दुःख से छुटकारा वाले जन्म, जरा और मरण रूपी चक्र में बार-बार परिभ्रमण करने से अत्यधिक थका हुआ, परिभ्रमण करता हुआ भी पार को भी नहीं प्राप्त करने वाला, इस संसार रूपी रहट में बाँधा हुआ जीव रूपी बैल घूम रहा है। बैल अनेकों बार घूमने के बाद भी उसी चक्र में रहता है । यही दशा बाल मरण करने वाले जीव की है, उन जीवों को जो चार गतियों में और जो चौरासी लाख योनियों मे अनिष्ट प्रद है उसे ही दुःखपूर्वक अनुभव करना
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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