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________________ २२० श्री संवेगरंगशाला सविचार और अविचार दो भेद हैं। उसमें पराक्रम वाले अर्थात् क्रिया के अभ्यास जिस मुनि ने शरीर की संलेखना की हो उसे सविचार पूर्वक होता है। और दूसरा अविचार भक्त परिक्षा मरण, मृत्यु नजदीक होने से संलेखना का समय पहुंचता न हो, ऐसे अपराक्रम वाले मुनि को होता है। वह अविचार भक्त परिक्षा भी संक्षेप से तीन प्रकार की है-प्रथम निरुद्ध, दूसरी निरुद्धतर, और तीसरी परम निरुद्ध कहा है। उसका भी स्वरूप कहता हूँ। जो जंघा बल रहित और रोगों से दुर्बल शरीर वाला हो उसे प्रथम अविचार निरुद्ध भक्त परिक्षा मरण कहा है। यह मरण में भी बाह्य, अभ्यन्तर त्याग आदि विधि पूर्व में कही है, उसके अनुसार जानना और यह मरण भी प्रकाशअप्रकाश दो प्रकार का है, जिससे लोग जानते हैं वह प्रकाश रूप अर्थात् प्रगटरूप है, और लोग नहीं जानें वह अप्रकाश रूप समझना। और सर्प, अग्नि, सिंह आदि से अथवा शूल रोग, मूर्छा, विशूचिका आदि से आयुष्य को खत्म होता जानकर मुनि शीघ्र ही वाणी जहाँ तक गंवाई नहीं (बन्द नहीं हुई) और चित्त भी व्याक्षिप्त नहीं हुआ, वहाँ तक पास में रहे आचार्योदि के समक्ष अतिचारादि की आलोचना करना उसे दूसरा नीरुद्धतर अविचार मरण कहा है। उससे भी पूर्व कहे अनुसार त्यागादि विधि यथायोग्य करने का होता है। और बात आदि रोग से जब साधु की वाणी रुक जाये, बोलने में असमर्थ हो, तब उसे तीसरा परम निरुद्ध अविचार नामक मरण जानना। आयुष्य को खत्म होता जानकर वह साधु उसी ही समय श्री अरिहंत, सिद्ध और साधुओं के समक्ष सर्व की आलोचना करे । इस तरह यह भक्त परिक्षा श्रुतानुसार से कहा है। अब इंगिनी मरण को सम्यग् रूप संक्षेप से कहता हूँ। १६. इंगिनी मरण : -- इसमें प्रतिनियत (अमूक) भूमि भाग में ही अनशन क्रिया की इंगन अर्थात् चेष्टा या प्रवृत्ति करने की होने से इससे उस चेष्टा को इंगिनी कहलाता है, और उसके द्वारा जो मृत्यु होती हो, उसे इंगिनी मरण कहते हैं। वह चार प्रकार का आहार का त्याग करने वाला, शरीर की सेवा सुश्रुषा आदि प्रतिकर्म नहीं करने वाला, और इंगिनी अमुक देश में रहने वाले कोही होता है। भक्त परिक्षा में विस्तारपूर्वक जो उपक्रम ज्ञानपूर्वक प्रयत्न करने को कहा है, वही उपक्रम इंगिनी मरण में भी यथायोग्य जानना । द्रव्य से शरीरादि की और भाव से रागादि की संलेखना को करने वाला, इंगिनी मरण में ही एक बद्ध व्यापार वाला, प्रथम के संघयण वाला, और बुद्धिमान ज्ञानी मुनि अपने गच्छ को क्षमा याचना कर, अन्दर और बाहर से भी सचित्त या जीवादि से संसक्त न हो शुद्ध भूमि के ऊपर बैठकर, वहाँ तृण आदि को बिछा
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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