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________________ श्री संवेगरंगशाला १८६ I वृत्ति करना, अथवा अनुकूलता होते हुए भी सामायिक नहीं किया हो इत्यादि की सम्यक् आलोचना करना । देशावगासिक में भी पृथ्वीकायादि के भोग संवर - नियम नहीं किया हो, जयणा से रहित कपड़े धोये हों इत्यादि सर्व को सम्यक् पूर्वक आलोचना ले । पौषध व्रत में संथारा, स्थण्डिल आदि पडिलेहन आदि जो नहीं किया हो या अविधि से किया इत्यादि तथा पौषध का सम्यक् पूर्वक पालन नहीं किया हो उसे भी प्रगट रूप आलोचना ले | अतिथि संविभाग व्रत में साधु, साध्वी को अशुद्ध आहार पानी दिया और शुद्ध कल्प्य आदि उत्तम आहार पानी आदि होते हुए भी नहीं दिया उसकी भी आलोचना स्वीकार करे । धार्मिक मनुष्यों जो बन सके वैसे अमुक अभिग्रह को अवश्य ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि अभिग्रह के बिना रहना उसे योग्य नहीं है । फिर भी शक्य अभिग्रह स्वीकार नहीं करे, अथवा स्वीकार किए अभिग्रह का प्रमाद से खण्डन करे तो उसकी भी आलोचना ले । यह आलोचना करने रूप अतिचार कहा है । इस तरह देश विरति के अतिचारों की आलोचना करने के बाद तपवीर्य दर्शन सम्बन्धी लगे हुए अतिचार को भी निश्चित रूप साधु के समान आलोचना स्वीकार करे तथा साधु, साध्वी वर्ग में ग्लानि के औषध की गवेषणा नहीं की या श्री जैन मन्दिर में यदि प्रमार्जन - देखभाल आदि नहीं किया हो, श्री जैन मन्दिर में यदि शयन किया, तथा खान-पान किया अथवा हाथ पैर आदि धोये हों, उन सबकी आलोचना लेना चाहिए । तथा जैन मन्दिर में पान भक्षण का थूक, कफ, श्लेष्म और शरीर का मैल डालना इत्यादि कार्य किया हो तथा वह देनदार आदि किसी को पकड़ा हो अथवा बाल देखना, जूं निकालना, कंघी करना, और श्री जैन मन्दिर में अनुचित आसन लगाना, असभ्यता से बैठना, स्त्री कथा, भक्त कथा आदि विकथा की हो, उस सबको श्री जैन भक्ति में तत्पर गृहस्थ प्रगट रूप आलोचना लेना चाहिए । तथा राग आदि के कारण किसी प्रकार से भी देव द्रव्य से ही आजीविका चलाई हो, या नाश होते देव द्रव्य की उपेक्षा की हो, श्री अरिहंत परमात्मा आदि की जो कोई भी अवज्ञा अशातना की हो, उस सब की भी आत्म शुद्धि करने के लिए सम्यक् रूप निवेदन कर आलोचना ले । तथा धर्मी आत्माओं की हमेशा प्रशंसा आदि करणीय नहीं किया और ईर्षा - मत्सर रखा, दोष जाहिर करना इत्यादि अकरणीय किया हो, उसकी भी सम्यक् आलोचना लेना चाहिए | अधिक क्या कहें ? जो कुछ भ, कभी भी जैन आगम से विरुद्ध कार्य किया हो, करने योग्य को नहीं किया हो अथवा वह करते हुये भी सम्यक्
SR No.022301
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmvijay
PublisherNIrgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year1986
Total Pages648
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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